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________________ वर्ष २, किरण ११] तृष्णाकी विचित्रता - वमाही करूँगा; क्योंकि अब मैं इनका हो चुका हूँ। सुखदेवको खुशीका पारावार न रहा, मानो उनका __पुत्रका ऐसा उत्तर सुनकर प्यारेलाल काठमारे पुत्र ही फिरसे दामादके रूप में आया हो। से हो गये । मनही मन बहुत क्रोधित हुए, लेकिन दम्पति वहीं पर सुखसे रहने लगे । विशालकर क्या सकते थे । लज्जत होकर सब कुछ वहीं चन्द्रकी पांचसोकी नौकरी लगी। एक सालमें ही छोड़ अपने घर गये। उन्होंने सुखदेवका सब ऋण चुका दिया । सब लोग उनके रुपये लेने पर हँसी उड़ाने आज दिन सुखदेवको घरमें स्वर्गीय सुखोका लगे। कोई कुछ कहता था कोई कुछ । इधर अनुभव हो रहा है। तृष्णाकी विचित्रता ( एक गरीबकी बढ़ती हुई तृष्णा ) जिम समय दीनताई थी उस ममय ज़मीदारी पाने की इच्छा हुई, नर जमीदारी मिली तो सेठाई पानेकी इच्छा हुई, जब मेठाई प्राप्त होगई तो मंत्री होनेकी इच्छा हुई, जब मत्री हुश्रा तो राजा बननेकी इच्छा हुई जब राज्य मिला, तो देव बननेकी इच्छा हुई, जब देव हुआ तो महादेव होनेकी इच्छा हुई । अहो रायचन्द्र ! वह यदि महादेवभी हो जाय तो भी तृष्णा तो बढ़ती ही जाती है, मरती नहीं, ऐगा मानों ।। १ ॥ ___मुँहपर झुर्रियां पड़ गई, गाल पिचक गये, काली केशकी पट्टियाँ सफ़ेद पड़ गई; सूंधने, सुनने और देग्वनकी शक्तियाँ जाती रहीं, और दाँतांकी पंक्तियाँ खिर गई अथवा घिस गई, कमर टेढ़ी होगई, हाड़ मांस सूख गये, शरीरका रंग उड़ गया, उठने बैठने की शक्ति जाती रही, और चलने में हाथमे लकड़ी लेनी पड़गई। श्ररे ! रायचन्द्र इस तरह युवावस्थासे हाथ धो बैठे, परन्तु फिर भी मनसे यह रॉड ममता नहीं मरी॥२॥ करोड़ों कर्जका सिरपर डंका बज रहा है, शरीर सूखकर रोगस ऊँध गया है, राजा भी पीड़ा देने के लिये मौका तक रहा है और पेट भी पूरी तरहसे नहीं भरा जाता । उमपर माता पिता और स्त्री अनेक प्रकारकी उपाधि मचा रहे हैं, दुःखदायी पुत्र और पुत्र खाऊँ खाऊँ कर रहे हैं । रायचन्द्र ! तो भी यह जीव उधेड़बुन किया ही करता है और इससे तृष्णाको छोड़कर जंजाल नहीं छोड़ी जाती ॥ ३ ॥ नाड़ी क्षीण पड़गई, अवाचककी तरह पड़रहा, और जीवन दीपक निस्तेज पड़ गया । एक भाईने इसे अन्तिम अवस्थामें पड़ा देखकर यह कहा कि अब इस बिचारेकी मिट्टी ठंडी होजाय तो ठीक है । इतनेपर उस बुढ़ेने खीजकर हाथको हिलाकर इशारेसे कहा, कि हे मूर्ख ! चुप रह, तेरी चतुराई पर आग लगे। अरे रायचन्द्र ! देखो देखो, यह प्राशाका पाश कैसा है ! मरते मरते भी बुढ़ेकी ममता नहीं मरी ॥४॥ -श्रीमद् राजचन्द्र
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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