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वर्ष २, किरण ८].
प्रवृत्ति-पथ
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ऐसी महत्वपूर्ण एवं मांगलिक तिथिको, खेद है बीर-शासनका प्रसार होकर लोकमें सुख-शान्तिकि हम असेंसे भूले हुए थे ! सर्वप्रथम मुख्तार सा० ने मूलक कल्याणकी अभिवृद्धि होवे।" धवल ग्रन्थपरसे वीर-शासनकी इस जन्मतिथिका पता इसके बाद ही, २६ अमेल सन् १९३६ को उद्चलाया और उनके दिल में यह उत्कट भावना उत्पन्न घाटित होने वाले अपने 'वीरसेवामन्दिरमें उन्होंने ५ जुहई कि इस दिन हमें अपने महोपकारी वीरप्रभ और लाई सन् १९३६ को वीरशासन-जयन्तीके उत्सवका उनके शासनके प्रति अपने कर्तव्यका कुछ पालन ज़रूर प्रायोजन किया और उस वक्तसे यह उत्मब बराबर करना चाहिये । तदनुसार उन्होंने १५ मार्च सन् १९३६ हरसाल मनाया जा रहा है। बड़ी प्रसन्नताकी बात है को 'महावीरकी तीर्थ प्रवर्तन-तिथि' नामसे एक लेख कि जनताने इसे अपनाया है, दि. जैनसंघ अम्पालाने लिखा और उसे तत्कालीन 'वीर' के विशेषाङ्क में प्रका. भी इसके अनुकूल अावाज उठाई है और पिछले दो शित कराया, जिसके द्वारा जनताको इस पावन तिथिका वर्षों में यह शासन-जयन्ती बहुतसे स्थानों पर बड़े उत्साहपरिचय देते हुए और इसकी महत्ता बतलाते हुए. इसकी के साथ मनाई गई है-गतवर्ष वीरसेवामन्दिरमें इस स्मतिमें उस दिन शुभ कृत्य करने तथा उत्सवादिके शासन जयन्तीके मनानेमें जो उत्साह व्यक्त किया गया. रूपमें यह पुण्यदिवस मनानेकी प्रेरणा की गई थी, और उसके फलस्वरूप ही 'अनेकान्त' का पुनः प्रकाशन अन्तमं लिखा था-"इस दिन महावीर शामनके पाठकों के सामने है। प्रेमियोंका खास तौर पर उक्त शासनकी महत्ताका इस वर्ष यह चिरस्मरगीय तिथि ता. २ जुलाई सन विचार कर उसके अनुसार अपने आचार-विचार १६३६ रविवार के दिन अवतरित हुई है । अतः सर्व को स्थिर करना चाहिये और लोकमें महावीर- साधारणसे निवेदन है कि वे इस पानेवाली पुण्यतिथि शासनके प्रचारका-महावीर मन्देशको फैलाने का भीसे ध्यान रखें और उस दिन पूर्णनिष्ठा एवं का-भरसक उद्योग करना चाहिये अथवा जो उत्साह के साथ वीरशासन-जयन्ती मनानका प्रायोजन लोग शासन-प्रचारके कार्यमें लगे हो उन्हें सषा करें और उसे हर तरहसे सफल बनानेकी पूर्ण चेष्टा महयोग एवं साहाय्य प्रदान करना चाहिये,जिममं करना अपना कर्तव्य मम ।
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प्रवृत्ति-पथ तुम्हारी नगरी जल रही है, तुम खड़े देख रहे हो। वृष्टिकी आशा कर हो, वह मंघ नहीं है, यह तुम्हारी किस अाशामें खड़े हो?
जलती नगरीसे उठता हुश्रा काला धुना है। उसमें वर्ण वर्षा इस श्रागको नहीं बुझा सकती। बिजलीकी चमक नहीं, बल्कि दीनोंकी अाह प्रदीम हो और वर्षा है भी कहाँ ? इन उपलन्त तापके श्रागे मेघ रही है, शीतल जलकण नहीं, बल्कि उत्तम प्रकरणाकहाँ टिक सकेंगे? क्षण भर ही में वे वाण्य होकर उड़ का प्रवाह थमा हश्रा है। जाएँगे, श्राग उभी प्रकार धधकती ही रह जायगी ! इम व्यर्थ आशाको छोड़ो, उठो, प्रवृत्तिपथ पर
वह ? वह दुःस्वप्न है, दुराशा है ! जिसे तुम कृष्ण श्रायो! वर्ण मेव समझ कर प्रसन्न हो रहे हो, जिससे तुम घोर