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________________ २६० अनेकान्त [फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं०२४६ (१) "श्राचार्यने सूत्रमें आये हुए 'श्रकर्मभूमिक' खंडोंके मनुष्य को छोड़ कर, अकर्मभूमिक शब्दकी शब्दकी परिभाषाको बदल कर अकर्मभूमिकोंमें संयम- दूसरी विवक्षा करनी पड़ी, जिसमें किसीको कोई विप्रतिस्थान बतलानेका दूसरा मार्ग स्वीकार किया !" पत्ति न हो सके । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि (२) तितो न किंचिद् विप्रतिषिद्धम्' पदसे यह श्राचार्यका अभिप्राय किसी-न-किसी प्रकारसे अकर्मवात ध्वनित होती है कि 'अकर्मभूमिक' की पहली विवक्षा भूमिक मनुष्यके संयमस्थान सिद्ध करना है न कि में कुछ 'विप्रतिषिद्ध' अवश्य था । इसीसे प्राचार्यको म्लेच्छ खंडोंके सब मनुष्योंमें सकलसंयमकी पात्रता 'अकर्मभूमिक' की पहली विवक्षाको बदल कर दूसरी सिद्ध करना, यदि उनकी यही मान्यता होती तो वे विवक्षा करना उचित जान पड़ा!" अकर्मभूमिक शब्दसे विवक्षित म्लेच्छ खंडके मनुष्योंको (३) "यदि प्राचार्य महाराजको पाँच खंडोंके समी छोड़ कर और अकर्म भूमिककी दूसरी विवक्षा करके म्लेच्छ मनुष्योंमें सकलसंयम ग्रहणकी पात्रता अभीष्ट सिद्धान्तका परित्याग न करते !!" थी और वे केवल वहाँकी भूमिको ही उसमें बाधक शास्त्री जीके लेखकी ऐसी विचित्र स्थिति होते हुए समझते थे—जैसा कि सम्पादक जीने लिखा है तो और यह देखते हुए कि वे अपनी हेराफेरीके साथ जयप्रथम तो उन्हें पार्यखंडमें श्रागत म्लेच्छ मनुष्योंके धवल-जैसे महान् ग्रन्थके रचयिता श्राचार्य महाराजको संयमप्रतिपत्तिका अविरोध बतलाते समय कोई शर्त भी हेराफेरीके चक्कर में डालना चाहते हैं और उनके नहीं लगानी चाहिये थी। दूसरे, पहले समाधान के बाद कथनका लब्धिसारमें निश्चित सार खींचने वाले सिद्धान्तजो दूसरा समाधान होना चाहिये था, वह पहले समा- चक्रवर्ती नेमिचन्द्र-जैसोंकी भी बातको मानकर देना धानस भी अधिक उक्त मतका समर्थक होना चाहिये था नहीं चाहते, यह भाव पैदा होता है कि तब उनके और उसके लिए 'अकर्मभूमिक' की परिभाषा बदलनेकी साथकी इस तत्त्वचर्चा को आगे चलानेसे क्या नतीजा आवश्यकता नहीं थी !" निकल सकता है ? कुछ भी नहीं। अतः मैं इस बहस (४) "इस प्रकारसे अकर्मभूमिक मनुष्यों के सकल- को यहाँ ही समाप्त करता हूँ और अधिकारी विद्वानोंसे संयम-स्थान बतलाकर भी श्राचार्यको संतोष नहीं हुआ, निवेदन करता हूँ कि वे इस विषयमें अपने-अपने विचार जिसका संभाव्य कारण मैं पहले बतला आया हूँ । अतः प्रकट करनेकी कृपा करें। उन्हें अकर्मभमिक शब्दकी पहली विवक्षा-म्लेच्छ वीर-सेवामन्दिर, सरसावा, ता०२१-२-१९३६ सुभाषित घरमें भूखा पड़ रहै, दस फाकै हो जाय । मांगन मरण समान है, मत कोई माँगो भीख । तुलसी भैया बन्धुके कबहुँ न मांगन जाय ॥ मांगन ते मरना भला, यह सतगुरकी सीख ॥-तुलसी तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो। दस्ते सवाल सैंकड़ों ऐबोंका ऐब है। जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरन करो ॥ जिस दस्तमें यह ऐब नहीं वह दस्ते गैब है ॥नालिय
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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