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________________ ६७४ अनेकान्त [श्राश्विन, वीर-निर्वाण सं०२४६५ कर्मके उदयसे अधर्मानुकूलवृत्ति होती है ऐसा नहीं है, दृष्टि पंचमगुणस्थानवर्ती मनुष्य धार्मिक होता हुआ भी किन्तु जिस वृत्तिके कारण जीव लोकव्यवहारमें उच्च लोकनिंद्य (नीच) वृत्तिके कारण नीचगोत्री माना समझा जाय उस वृत्तिको उच्चवृत्ति और जिस वृत्तिके जाता है। लोकव्यवहारमें भी-जैसा कि आगे स्पष्ट कारण जीव लोकव्यवहारमें नीच समझा जाय उस किया जायगा-पशु अपनी अधम वृत्तिके कारण वृत्तिको नीचवृत्ति समझना चाहिये *। नीचगोत्री व मनुष्योंमें शूद्र व म्लेच्छ भी अपनी अधम तात्पर्य यह है कि धार्मिकताका अर्थ हिंसादि पंच (नीच) वृत्तिके कारण नीचगोत्री तथा वैश्य, क्षत्रिय, पापोंसे निर्वृत्ति और अधार्मिकताका अर्थ हिंसादि पंच ब्राह्मण और साधु अपनी अपनी यथायोग्य उच्चवृत्तिके पापोंमें प्रवृत्ति होता है, जिसका भाव यह है कि धार्मि- कारण उच्चगोत्री समझे जाते हैं । कतासे प्राणियोंका जीवन उन्नत एवं श्रादर्श बनता है यदि कहा जाय कि पाश्चात्य देशोंमें तो हिन्दुस्तानऔर अधार्मिकतासे उनका जीवन पतित हो जाता है। की तरह उच्च और नीच सभी तरहकी वृत्तिवाले मनुष्य अब यदि धर्मानुकुलवृत्तिको उच्चवृत्ति और अधर्मानुकुल होनेपर भी वर्णव्यवस्थाका अभाव होनेसे उच्चता-नीचतावत्तिको नीचवृत्ति मानकर धार्मिक और अधार्मिक वृत्ति- जो लोग ब्राह्मण त्रिय-वैश्य-कुल्लोंमें जन्म में क्रमसे उच्चगोत्रकर्म और नीचगोत्र कर्मको कारण लेकर अपने योग्य उच्चवृत्ति धारण नहीं करते हैं-नीच माना जायगा तो प्रत्येक उच्चगोत्रीका जीवन उन्नत एवं वृत्तिको अपनाते हैं, अपने पदपे बहुत ही हल्के टहल श्रादर्श तथा प्रत्येक नीचगोत्रीका जीवन पतित (पाप ___ चाकरी तथा भीख मांगने तकके काम करते हैं अथवा मय ) ही मानना पड़ेगा; परन्तु ऐसा मानना आगम कन्या-विक्रय-जैसे अधम कृत्यों को करते-कराते हैं और प्रमाण व लोकव्यवहारके विरुद्ध है । कारण कि उनके द्वारा अपना लौकिक स्वार्थ सिद्ध करने तथा पेट आगमग्रंथोंसे सिद्ध है कि एक अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव पालनेके लिये सुकुमार कन्याओंको बढ़े बाबाओंके साथ अधार्मिक होता हुआ भी लोकमान्य (उच्च) वृत्तिके विवाहकर उनका जीवन नष्ट करते हैं, वे लोकव्यवहारमें कारण उच्चगोत्री माना जाता है व एक क्षायिक सम्प __ तो अपने उक्त कुलोंमें जन्म लेनेके कारण उच्चगोत्री छ यदि लौकिकजनोंकी समझके उपर ही वृत्तिकी समझे जाते हैं, तब ऐसे लोगोंके विषयमें गोत्रकर्मकी उचता और नीचता निर्भर है तो किसी वृत्तिके संबन्धमें क्या व्यवस्था रहेगी ? क्या लौकिक समझके अनुसार लौकिकलनोंकी समझ विभिन्न होनेके कारण वह वत्ति उन्हें उच्चगोत्री ही मानना चाहिये अथवा वत्तिके अनुऊँच या नीच न रहेगी । यदि उच्च माननेवालोंकी अपेक्षा रूप नीचगोत्री ? लौकिक समझके अनुसार उचगोत्री उसे नीच और नीच माननेवालोंकी अपेक्षा नीच कहा माननेमें वृत्तिके इस सब कथन अथवा गोत्रकर्मके साथ जायगा और तदनुरूप ही गोत्रकर्मके उदयकी व्यवस्था- उसके सम्बन्धनिर्देशका कोई महत्व नहीं रहेगा । और की जायगी तो गोत्रकर्मके उच्च-नीच भेदकी कोई वास्त- वृत्तिके अनुरूप नीचगोत्र माननेमें उस लोकसमझ विकता न रहेगी-जिसे नीचगोत्री कहा जायगा उसे अथवा लोकमान्यताका कोई गौरव नहीं रहता जिसे ही उचगोत्री भी कहना होगा। इस लेखमें बहुत कुछ महत्व दिया गया है। --सम्पादक -सम्पादक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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