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वर्ष २, किरण १२]
मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ?
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सिद्धि व धवलसिद्धान्तमें नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्य
गोत्रकर्मके भेद गति और देवगति व इनके अवान्तर भेदरूप कुलोंमें
शास्त्रोंमें गोत्रकर्मके दो भेद बतलाये हैं-उच्चगोत्रप्राप्त साधनों के अनुसार जीवकी आचरणविशेषरूप कर्म और नीचगोत्रकर्म । उच्चगोत्रकर्मके उदयसे जीव प्रवृत्ति ही मानी गयी है।
उच्चवृत्तिको अपनाता है और नीचगोत्रकर्मके उदयसे जीवके इस आचरणविशेषका मतलब उसके लौ- जीव नीच वतिको धारण करता है। इसलिये लोककिक श्राचरण अर्थात् वृत्तिसे है। तात्पर्य यह है कि
व्यवहार में जिस जीवकी उच्चवत्ति हो उसे उपचगांत्री संमारी जीव नरकादि गतियों (कुलों) में जीवन से अर्थात् उसके उच्च गोत्रकर्मका उदय और लोकव्यवहारमें ताल्लुक रखनेवाले खाने पीने, रहन-सहन यादि श्राव- जिस जीवको नीचत्ति हो उसे नीचगोत्री अर्थात् उसके प्रयक व्यवहारों में जो लोकमान्य या लोकनिंद्यरूप प्रवृत्ति नीचगौत्रकर्मका उदय समझना चाहिये। करता है व उनकी पर्तिके लिये यथा संभव जो लोक
- यहाँ पर वृत्तिकी उच्चताका अर्थ धार्मिकता और मान्य या लोकनिंद्यसाधनोंको अपनाता है यह मब जीव- नीचताका अर्थ अधार्मिकता नहीं है अर्थात् जीवकी का लौकिक याचरण कहलाता है। यह लौकिक या
उच्चगोत्रकर्म के उदयसे धर्मानुकुलवृत्ति और नीचगोत्रचरण ही लोकव्यवहार में 'वृत्ति' शब्दसे कहा जाता है
और यही गोत्रकर्मका कार्य है । इसीको गोत्रकर्मका "उच्च णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं।" व्यावहारिक रूप कह सकते हैं, कारण कि इसके द्वारा (कर्म० गाथा० १३) ही जीवके उच्चगोत्री व नीनगोत्री होनेका निर्णय जीवका उचगोत्रकर्मके उदयसे उस पाचरण और होता है।
नीचगोत्र कर्मके उदयसे नीच आचरण होता है, इस
प्रकार उरचगोत्रकर्म और नीचगोत्रकर्मके भेदसे गोत्र. जीवनका अर्थ है जीवका शरीरसे संयोग । यह कर्म दो प्रकार है। संयोग जबतक कायम रहता है तब तक उसको खाने- यद्यपि “यस्योदयालोक्पूजितेषु कुलेषु जन्म तदु. पीने रहन सहन श्रादि लौकिक पाचरणोंको करना चैर्गोयम्, गर्हितेषु यत्कृतं तबीचैर्गोत्रम्" राजवातिकके पड़ता है व यथासंभव उनके निमित्तोंको भी जुटानेका इस उल्लेखमें तथा “दीवायोग्यसाध्वाचाराणा, साध्याप्रयत्न जीव करता है, यह सब जीवके गोत्रकर्मके उदयसे चारैः कृतसंबन्धानां, आर्यप्रत्यमाभिधानव्यवहारनिहोता है।
बन्धनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रम्, तत्रोत्पत्तिहेतु* गोम्मटसार- कर्मकाण्डकी गाथा नं० १३ में कमप्युच्चैर्गोत्रम् । ......."तद्विपरीतं नीचेर्गोत्रम् ।" प्रयुक्त हुए 'श्राचरण' और 'चरम' शब्दोंकी इस प्रकार धवलसिद्धान्तके इस उल्लेखमें भी उच्चकुल्ल व नीचकुलकी पत्तिरूप ब्याख्या क्या किसी सिद्धान्त ग्रन्थके मा- में जीवकी उत्पति होना मात्र कमसे उपचगोत्रकर्म और धार पर की गई है अथवा अपनी ओरसे ही. कल्पित नीचगोत्रकर्मका कार्य बतलाया है। परन्तु यह कथन की गई है ? इसका स्पष्टीकरण होना चाहिये। कारणमें कार्यका उपचार मानकर किया गया है। यह
-सम्पादक हम पहिले कह चुके हैं ।