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वर्ष २, किरण १२]
मनुष्योंमें उच्चता नीचता क्यों ?
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का भेद नहीं पाया जाता है, लेकिन ऐसी बात नहीं है। संस्कृति इतनी व्यापक और प्रभावशाली है कि उसका कारण कि यद्यपि पाश्चात्य देशोंमें वैदिक व जैनधर्म- प्रभाव हिन्दुस्तानके ऊपर भी पड़ रहा है, इसलिये जैमी वर्णव्यवस्थाका अभाव है फिर भी वत्तिके माधार माजके समयमें उनको 'म्नेछ' मानना निरी मूर्खता पर उनमें भी ऐसी वर्णव्यवस्थाकी कल्पना की जा- ही कही जायगी। और फिर ये पाश्चात्य देश भी तो भकती है । अथवा वर्णव्यवस्थाका अभाव होने पर भी आर्यखंड में ही शामिल हैं, इसलिये वहाँ के बाशिंदा उनमें वृत्तिकी लोकमान्यता और निंद्यताके भेदसे उच्चता लोग जन्मसे तो म्लेच्छ माने नहीं जा सकते हैं कर्मसे और नीचताका कोई प्रतिषे धनहीं कर सकता है। म्लेच्छ अवश्य कहे जा सकते हैं। लेकिन जिस समय उनमें भी भंगीकी वृत्तिको नीचवृत्ति ही समझा जाता है इनकी वृत्ति अर्थात् लौकिक आचरण क्रूरता लिये हुए व पादरी आदि की वृत्तिको उच्चवृत्ति समझा जाता है, था उस समय इनको म्लेच्छ कहा जाता था परन्तु श्राज इमसे यह बात निश्चित है कि पाश्चात्य देशोंमें वृत्तिभेद तो वे किसी न किमी धर्मको भी मानते हैं, ब्राह्मण, के कारण उच्चत्ता-नीचताका भेद तो है परन्तु यह बात क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैमी वृत्तिको भी धारण किये दूसरी है कि इनमें उच्च समझे जानेवाले लोग भंगी हए हैं । ऐसी हालतमें उन सभीको 'म्लेच्छ' नहीं माना जैसी अधम वृत्ति करनेवाले मनुष्योको मनुष्यताके नाते जा सकता है। वे भी हिन्दुस्तान-जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, मनुष्योचित व्यवहारोंसे वंचित नहीं रखते हैं। यह वैश्य और शद्रवृत्ति वाले व उच्च-नीचगोत्रवाले माने हिन्दुस्तान के वैदिकधर्म व जैनधर्मकी ही विचित्रता है जा मकते हैं। कि जिनके अनुयायी अपनेको उच्च समझते हुए कुल- इम कथनमे यह तात्पर्य निकलता है कि धर्म और मदसे मत्त होकर अधमवृत्तिवाले लोगोंको पशुश्रोंसे भी अधर्मका ताल्लुक क्रममे श्रात्मोन्नति और प्रात्म-पतनसे गया बीता समझते हैं और मनुष्योचित व्यवहारोंकी तो है, लेकिन वृत्तिका ताल्लुक शरीर और आत्माके संयोगबात ही क्या ? पशु-जैसा भी व्यवहार उनके साथ नहीं म्प जीवन के श्रावश्यक व्यवहारोसे है। यही करण है करना चाहते हैं !!
कि प्राणियोंके जीवन में जो धार्मिकता पाती है उमका यदि कहा जाय कि उल्लिखित उच्च और नीच वृत्ति कारण श्रात्मपुरुषार्थ-मागृति बतलाया है। यह आत्मपाश्चात्य देशोंके मनुष्यों में पायी जानेपर भी उच्चवृत्ति- पुरुषार्थ-जागृति अपने बाधक कोंके अभावसे होती है, वाले लोगांका नीचवृत्तिवाले लोगोंके माथ समानताका इमलिये श्रात्मपुरुषार्थ-जागृतिका वास्तविक कारणा व्यवहार होनेसे ही तो वे 'म्लेच्छ' माने गये हैं। परन्तु उमके बाधक कर्मका अभाव ही माना जा सकता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, कारण कि जिस गये बीते उच्चगोत्रकर्मका उदय नहीं । यद्यपि प्रात्मपुरुषार्थ जागृति ज़मानेमें इन देशोंमें धर्म-कर्म-प्रवृत्तिका अभाव था, में उच्चगोत्रको भी कारण मान लिया गया है परन्तु यह हिन्दुस्तान अपनी लौकिक सभ्यता और संस्कृतिमें बढ़ा- कारणता शरीरमें मोक्षकारणता माननेके समान है। चढ़ा था और ये देश सभ्यता और संस्कृतिमें बिल्कुल फिर भी ऐसी कारणता तो किसी हद तक या किसी रूपगिरे हुए थे उस जमाने में इन लोगोंको भले ही 'म्लेच्छ' में नीचगोत्रमें भी पायी जाती है। क्योंकि नीचगोत्री मानना उचित हो, परन्तु आज तो उनकी सभ्यता और जीव भी तो कमसे कम देशवती श्रावक हो सकता