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________________ ६७६ अनेकान्त [श्राश्विन, वीर-निर्वागा सं०२४६५ दायिक सम्यग्दृष्टि भी होसकता है । अथवा किमी रूपमें यहाँ पर यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जिस उच्चगोत्रकर्म भी धार्मिकताका कारण नहीं हो सकता है, जीवकी वृत्तिरूप बाह्य प्रवृत्ति लोकव्यवहारमें दीनता कारणकि अभव्यमिथ्यादृष्टि तकके उच्चगोत्रकर्मका उदय अथवा करतापूर्ण समझी जाती हो, भले ही उससे उस निषिद्ध नहीं है । इमसे स्पष्ट है कि वृत्तिकी उच्चता और जीवकी अंतरंगमें घृणा ही क्यों न हो, तो भी वह जीव नीचतासे धार्मिकता और अधार्मिकताका कोई नियमित नीचगोत्री ही माना जायगा । इतना अवश्य है कि यदि संबन्ध नहीं है * । लोकव्यवहारमें उच्च मानी जाने किमी जीवको अपनी दीनतापर्ण व क्रूरतापूर्ण ऐसी वाली वृत्तिको धारण करनेवाला भी अधार्मिक हो सकता वृत्तिमे घृणा है तो उस जीवके उच्चगोत्रकर्मका बन्ध है और लोकव्यवहार में नीच मानी जानेवाली वृत्तिको हो सकता है और यदि वह अपनी इस वृत्तिमें ही मस्त धारण करनेवाला यथायोग्य धार्मिक (पंचपापरहित ) है तो उसके नीचगोत्रकर्मका ही बन्ध होगा । इमीप्रकार हो सकता है, इसलिये धार्मिकता और अधार्मिकताका जिस जीवकी वृत्तिरूप बाह्यप्रवृत्ति लोकव्यवहार में स्वाभिविचार किये बिना ही जो वृत्ति लोकमान्य (उत्तम) मानपर्ण समझी जाती हो उसे ही उच्चगोत्री माना जाहो रसका कारण उच्चगोकर्मका उदय है, और यही यगा लेकिन यदि ऐमा जीव अपनेको ऊँच और दूसरोंको कारण है कि उमका धारक जीव हिंसादि पंच पापोंको उनकी नीचवृत्तिके कारण नीच समझकर उनसे घृणा करता हुश्रा भी उच्चगोत्री समझा जाता है, तथा जो करता है तो उसके उच्चगोत्री होनेपर भी नीचगोत्रकर्मका वृत्ति लोकव्यवहारमें अधम समझी जाती हो उमका का- बन्ध होगा; तात्पर्य यह है कि अन्तरंग परिणतिकी रण नीचगोत्रकर्मका उदय है और यही कारगा है कि अपेक्षारहित जब तक जीवकी बाह्यवत्ति उच्च अथवा उसका धारक जीव हिंसादि पापोंको नहीं करता हश्रा भी नीच रूपमें कायम रहती है तबतक वह जीत्र उमी रूपनीचगोत्री माना जाता है। वृत्ति शायद ही कोई हो जिसे लोकके सभी मन्न्य ऊँच लोकव्यवहार में स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिको उत्तम (उच्च) अथवा सभी मनुष्य नीच मानते हों। कुछ मनुष्योंका माना गया है और दीनता अथवा क्रूरतापूर्ण वृत्तिको किसी वत्तिको ऊँच मानना और कुछका नीच मान अधम (नीच) माना गया है,इमलिये जिस जीवकी वृत्ति लेना इस बातके लिये कोई नियामक नहीं हो सकता स्वाभिमानपर्ण होती है वह जीव उच्चगोत्री माना जाता कि वह वत्ति उंच है या नीच; तर मान्यताकी ऐसी है और जिस जीवकी वृत्ति दीनता अथवा क्रूरतापूर्ण विचित्रताके आधार पर किसीको उच्चगोत्री और किसी होती है वह जीव नीचगोत्री माना जाता है । को नीचगोबी प्रतिपादित करना संगत प्रतीत नहीं * पदि ऐसा कोई नियत सम्बन्ध नहीं है तो फिर होता, और न सिद्धान्त गन्योंसे ही ऐसा कुछ मालम एक नीचगोत्री छठे गुणस्थानवर्ती मुनि क्यों नहीं हो. होता है कि नीच-उंच गोत्रका उदय किसी की मान्यता सकता । उसके उस धार्मिक अनुष्ठानमें नीचगोत्रका पर भवनम्बित है। यदि ऐसा हो तो गोत्रकर्म की बड़ी ही उदय बाधक क्यों है? --सम्पादक मिट्टी खराब हो जायगी-उसे भिन्न भित्र मान्यताके कहाँ माना जाता है ? लोकमें सर्वत्र या किसी अनुसार एक ही बातमें ऊँच और नीच दोनों बनना वर्गविशेष अथवा सम्प्रदाय विशेषके मनुष्योंमें ऐसी पड़ेगा! - -सम्पादक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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