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[पौष, वीर - निर्वाणसं० २४६५
स्याद्वादमार्गके संरक्षक और भव्यजीवोंके लिए अद्वितीय सूर्य — उनके हृदयान्धकारको दूर करके अन्त: प्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलाने वाले -- श्रीसमन्तभद्र स्वामीको मैं अभिनन्दन करता हूँ । नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे ।
यद्वचो वज्रपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ॥ - श्रादिपुराणे, जिनसेनाचार्यः ।
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अनेकान्त
जो कवियोंको-नये नये संदर्भ रचनेवालोंको—उत्पन्न करनेवाले महान विधाता ( कवि-ब्रह्मा ) थे- जिनकी मौलिक रचनाओं को देखकर --अभ्यास में लाकर - बहुत से लोग नई नई रचना करनेवाले कवि बन गए हैं, तथा बनते जाते हैं और जिनके वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गए थे- उनका कोई विशेष अस्तित्व नहीं रहा था— उन स्वामी समन्तभद्रको नमस्कार हो ।
समन्ताद् भुषने भद्रं विश्वलोकोपकारिणी । वन्दे समन्तभद्रं कवीश्वरम् ||
यद्वाणी तं
- पार्श्वनाथचरिते, सकलकीर्तिः ।
जिनकी वाणी - प्रन्थादिरूप भारती - संसार में सब ओर से मंगलमय - कल्याणरूप है और सारी जनताका उपकार करने वाली है उन कवियोंके ईश्वर श्रीसमन्तभद्रकी मैं सादर वन्दना करता हूँ । वन्दे समन्तभद्रं तं श्रुतसागर- पारगम् । भविष्यसमये योss तीर्थनाथो भविष्यति ।। -रामपुराणे, सोमसेनः ।
जो श्रुतमागरके पार पहुँच गए हैं- आगमसमुद्रकी कोई बात जिनसे छिपी नहीं रही — और जो आागेको यहाँ - इसी भरतक्षेत्र में तीर्थकर होंगे, उन श्रीसमन्तभद्रकां मेरा अभिवन्दन है-सादर नमस्कार है ।
समन्तभद्रनामानं मुनिं भाविजिनेश्वरम् । स्वयंभूस्तुतिकर्त्तारं भस्मव्याधिविनाशनम् ॥ दिगम्बरं गुणागारं प्रमाणमणिमण्डितम् । विरागद्वेषवादादिमनेकान्तमतं नुमः ॥
- मुनिसुव्रतपुराणे, कृष्णदासः ।
जो स्वयम्भू स्तोत्र के रचयिता हैं, जिन्होंने भस्मव्याधिका विनाश किया था— अपने भस्मक रोगको बड़ी युक्ति शान्त किया था, जिनके वचनादिकी प्रवृत्ति रागद्वेषसे रहित होती थी, 'अनेकान्त' जिनका मत था, जो प्रमाण - मरिणसं मण्डित थे - प्रमाणतारूपी मणियोंका जिनके सिर सेहरा बँधा हुआ था— अथवा जिनका श्रनेकान्तमत प्रमाणमरिण से सुशोभित है और जो भविष्य-कालमें जिनेश्वर (तीर्थंकर) होने वाले हैं, उन गुणोंके भण्डार श्रीसमन्तभद्र नामक दिगम्बर मुनिको हम प्रणाम करते हैं ।
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