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________________ वर्ष २, किरण १२] अतीतके पृष्ठोंसे वैभवकी गोदमें जो अपनी पुत्रीको देखा, तो पुल- -और रोने लगी, कनकधी जार-जार ! कित हो उठी ! देखने लगी-अचंभित-नज़रोंसे बुढिया अवाक् ! इधर-उधर! आजसे कुछ दिन पूर्व जैसा समुज्ज्वल- सन्दिग्ध !! भविष्य उसके चित्त पर रेखांकित हुआ था, ठीक रहस्यसे अविदित !!! वही वर्तमान बना हुआ उसके सामने था .... बोली ममतामयी स्वरमें-क्यों रोती हो, उसके रुचिर अनुमानकी सार्थकता ! मेरी बेटी ? क्या हुआ है तुम्हारे साथ ? कहो न ? __ जैसे वह स्वर्ग में है, प्रतिमासित होने लगा- अपनी माँसे छिपाओगी?–न, ऐसा न करो, उसे ! और वास्तविकता भी यही थी ! कनकभी मेरा मन दुख पायेगा- मैं शोक में डूबने लगूंगी पूर्ण सुखी थी ! उसके पास पतिका प्रेम था, वैभव और ........... !' था, और थे सुखके सभी आवश्यकीय-साधन ! कनकधी के आँसू थमे ! मुख पर कुछ शान्ति जिनदत्ताने उसके लिये भरसक प्रयत्न किए कि आई, वैसी ही, जैसी तुफानके बाद रत्नाकरमें ! वह प्रसन्न रहे, यही सब थे उसके सुख-साधन ! कहने लगी वह .."दोनों बैठी ! माँकी मुखाकृतिमें थी 'उनका' प्रेम 'उसी से है ! मुझे तो फटी आँखों सन्तोष-रेखा ! और पत्रीकी में अमर उदासी ! देखना तक उन्हें पसन्द नहीं ! रात-दिन इस घर बातें होने लगी ! 'कुछ देर धन महत्ताकी; इसके की नीरवतासे जूझना मेरा काम है ! एकान्त... पश्चात-जैसीकि बातें होनेका प्रायः सिस्टम होता दिन-रात एकान्त ! "माँ ! एक स्त्री के होते हुए है-सुख-दुख विषयक ! फर मुझे और सोंपते वक्त मेरे सुख दुखकी बात ___'बेटी ! और जो है वह तो ठीक ! परत भी तोसोच लेती-कुछ ! सुखी तो है न ?'-बुढ़ियाने साधारणतः प्रश्न बुढ़िया संज्ञा-हीन-सी हो रही थी . उसकी किया। चैतन्यता उसके साथ विश्वासघात किये जा रही __'सुखी .. ? नरकमें ढकेल कर मेरे सुखकी बात थी ! वह चुप ही रही! पछती हो-- मां-बातको साधकर मार्मिक-ढंग कनकश्री ने अपना क्रम भंग न होने दियासे कनकश्रीने उत्तर दिया। 'मैं नहीं समझ पाती कि तुमने क्या सोचा, क्या काले भुजंग पर जैसे बढ़ियाका पैर पड़ गया विचारा? स्त्री के लिये इससे अधिक और दुखकी हो, हिमालयकी चोटीसे गिर पड़ी हो;या हुआ हो बात क्या होती है ? 'प्रेमके दो खण्ड नहीं होतेआकस्मिक बनाघात ! वह घबड़ाकर बोली- माँ ! फिर उसका नाम 'प्रेम' न होकर 'दम्भ' हो क्यों...??? जाता है ! 'रहने दो माँ इस 'क्यों' को ! मुझे वेदना वह रुकी ! बुढ़ियाको अवसर मिला, उसके करती है यह 'क्यों' सहानुभूति नहीं ! मेरे भाग्यमें मुख पर रौद्रता, पैशाचिकता नाच रही थी,क्रोधसे जो है, भोग लूँगी ! अब चर्चासे क्या लाभ ?'... काँपते ओठोंसे निकला-हूँ ! यहाँ तक ? मैं
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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