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अनेकान्त
[आश्विन, बीर-निर्वाण सं०२४६५
नहीं जानती थी !.....
सहसा, एक-दिन कपालिकने स्वयंही सोचासन्नाटा!
वद्धा मेरा पोषण कर रही है, पोषण करने वाली बुढिया फिर आपही बड़ बड़ाने लगी-पागल होती है-मां ! शायद मांको कोई कष्ट हो, है, निरा पागल ! नवयौवनाको छोड़ कर उस...!' पूछ लेना मेरा कर्तव्य है !'
कनकश्रीके मुँह पर भी एक मधुर-मुस्कान ! दूसरे दिन उसने पूछा ! बुढ़ियाकी समस्या 'बेटी ! चिन्ता न कर तू ! मैं तेरे उस 'कांटे' हल होगई ! रुआंसी-सूरत बनाकर बोली- 'बेटा! को समूल नष्ट करके रहूँगी ! जब न रहेगी वह, मेरा कष्ट क्या पूछते हो तुम ? जिसके मारे न रात तब तेरे आगे ही सिर झुकाना पड़ेगा उसे !'- चैन न दिन !' बुढ़ियाके मानसिक पीड़ासे व्याकुल हृदयने 'ऐसी क्या वेदना है मां ?'–कापालिकने सान्त्वनात्मक शब्दोंमें भीष्म-प्रतिज्ञा की ! पूछा ! बुढ़ियाने समझाया-'तेरी बहन कनकश्री
का पाणिग्रहण जिनके साथ हुआ है,उनके एक स्त्री [तीन ]
और है जिनदत्ता ! वह मूढ़ उसीसे रत है ! बेचारी 'माँ भिक्षा!'
कनकश्रीका जीवन भार होरहा है, कष्ट में बीत रहे 'ठहरो, अभी लाती हूँ?
हैं उसके दिन ! इसी दुखके मारे मैं मरी जारही -और बन्धुश्री ने उस दानवाकार मलिन- हूँ...'-बुढ़ियाकी अांखें छलछला आई। ष, कपालिक-जोगीको हाँडी भर दी ! वह चला 'उपाय इसका ?' गया-हाथके त्रिशूलको अस्वाभाविक ढंगसे 'उपाय बड़ा कठिन है-बेटा ? तुमसे न हो हिलाता हुआ !
___ सकेगा!' इसके बाद-दूसरे दिन आया, तीसरे दिन क्यों ? कहो तो ?'-कापालिककी ताकतकी आया; फिर वह रोजका क्रम बन गया ! वह उपेच्छाकी गई हो जैसे ! तिलमिलाकर उसने आकर दर्वाजे पर आवाज देता ! आवाजके साथ पूछा ! बुढिया उठती और उसकी हांडी भर देती, वह अगर तुम कर सको तो?-यह . उपाय है चला जाता अपनी मस्तानी-चालसे, स्वछन्द ! 'बेटा ! कि जिनदत्ताको जानसे मार दो'__ भिक्षा-दानके धरातलमें पुन्यकी लालसा नहीं बुढ़ियाने इच्छा प्रकट की ! थी ! बुढ़िया को लेना था उस अघौरी-कपालिकसे कापालिकने एक पैशाचिक अट्टहास किया ! कार्य ! वह भी साधारण नहीं, भयंकर, खतरनाक बढ़िया मौन ! वह बोलाडेन्जरस् !!!
'यह मेरे लिए क्या बड़ी बात है मां ?-दूसरे पर कहनेकी रूप-रेखाही नहीं बनती थी ! क्या की जान लेना तो मेरा खेल है ! अवश्य ही बहिनकहे ?-कैसे कहे ? हिम्मत आ आकर लौट कनकधीका दुख दूर करूँगा ! तुम निश्चिन्त रहो! जाती!...
अगर ऐसा न कर सकूँ तो जीवित अग्नि-प्रवेश