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वर्ष २, किरण ६]
अन्तरखीपज मनुष्य
तथा वृत्ति कर्मभूमि के समान हैं वे 'कर्मभमिसमप्रणिषि और इसलिये गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा न. कहलाते हैं। क्योंकि उनकी प्रायु प्रादिके लिये उस उस ३००में 'देसे तदियकसाया णीचं एमेव मणुससामरणे प्रकारके निमित्तका वहां सद्भाव है।'
इस वास्यके द्वारा मनुष्य सामान्यकी दृष्टिसे-किसी वर्गऊपरके इन सब प्राचीन कथनोका जब एक साथ विशेषकी दृष्टिसे नहीं-देशसंयत गुणस्थानमें जो नीच विचार किया जाता है तो ऐसा मालम होता है कि गोत्रका उदय बतलाया है वह इन अन्तरदीपज मनुष्यों
अन्तरद्वीपज मनुष्य अधिकांशमें 'कर्मभमिसमप्रणिधि' को लक्ष्य करके ही जान पड़ता है। और 'मणवे भोषो हैं--कर्मभूमियोंके समान आयु, उत्सेध तथा वृत्तिको थावर' इत्यादि गाथा नं०२६८ में मनुष्योंके जो उदयलिये हुए हैं, उनका 'कन्दमलफलाशिनः' विशे- योग्य १०२ प्रकृतियां बतलाई हैं और उनमें नीचगोत्र पण और भरत चक्रवर्तीके द्वारा उन द्वीपोंको जीतकर की प्रकृतिको भी शामिल किया है उसमें नीचगोत्र-विषस्वाधीन किया जाना भी इसी बातको सूचित एवं पुष्ट यक उल्लेख इन अन्तर दीपज मनुष्यों तथा सम्मूर्धन करता है। यहां इस लेख में उन्हींका विचार प्रस्तुत है। मनुष्योंको भी लक्ष्य करके किया गया है,क्योंकि ये दोनों वे सब कुमानुष है, मनुष्य कल्प हैं-मनुष्योंसे हीन हैं हीनीचगोत्री हैं और गाथामें 'पोष' शब्दके प्रयोगद्वारा -और 'मृगोपमचेष्टित' विशेषणसे पशुओंके समान सामान्यरूपसे मनुष्यजातिकी दृष्टिसे कथन किया गया है जीवन व्यतीत करने वाले हैं। उनकी प्राकृति अधिक- -मनुष्यमात्र अथवा कर्मभूमिज आदि किसी वर्गविशेष तर पशुत्रोंसे 'मिलती-जुलती है-पशजगतकी तरफ के मनुष्योंकी दृष्टिसे नहीं। यदि मनुष्यमात्र अथवा सभी उसका ज्यादा मुकाव है क्योंकि शरीरका प्रधान अंग वोंके मनुष्योंके लिये उदययोग्य प्रकृतियोंकी संख्या 'मुख' ही उनका पशों -जैसा है और उसीकी विशेषता १०२ मानी जाय तो गाथा नं.३०२ व ३०३ में भोगके कारण उनमें नामादिकका भेद किया जाता है- भूमिज मनुष्योंके उदययोग्य प्रकृतियोंकी संख्या जो ७८ 'तिर्यड मुखाः' विशेषण भी उनकी इसी बातको पुष्ट करता बतलाई है और उसमें नीचगोत्रको शामिल नहीं किया है। जटासिंहनन्दी प्राचार्यने तो तिर्यचोंके वर्णनमें ही उसके साथ विरोध पाता है। साथ ही,अन्तरद्वीपज और उनका वर्णन दिया है-मनष्योंके वर्णनमें उनका सम्मछन मनुष्योंमें भी उबगोत्रका उदय ठहरता है; समावेश नहीं किया। इससे यह स्पष्ट जाना जाता है क्योंकि १०२ प्रकृतियोंमें उथगोत्र भी शामिल है। बाकी कि ये अन्तरद्वीपज मनुष्य प्रायः तिर्यचोंके ही समान कर्मभमिज मनुष्य-जिनमें प्रार्यखण्डज और म्लेच्छखहैं-मात्र मनुष्यायुका उपभोग करने तथा कुछ प्राकृति एडज दोनों प्रकारके मनुष्य शामिल हैं-सकलसंयमके मनष्यों-जैसी भी रखने प्रादिके कारण कमानष कह पात्र होने के कारण उच गोत्री हैं. यह बात लाते हैं । और इसलिये इन अभद्र प्राणियोंको तिर्यचों- पिछले लेखमें -'गोत्रकर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख' के ही समान नीचगोत्री समझना चाहिये ।
शीर्षकके नीचे स्पष्ट कर चुका हूँ और इसलिये गोम्मटसार चंकि तिर्यचौको देशसंयमका पात्र माना गया कर्मकाण्डकी उक्त गाथा नं०२६८ तथा ३०. में मनुष्योंहै और ये कर्मभूमिसमवृत्तिवाले अन्तरद्वीरज मनुष्य के नीचगोत्रके उदयका जो सम्भव बतलाया गया है मनुष्याकृति श्रादिके संमिश्रण द्वारा दूसरे तिर्यचपशुओंसे कुछ अच्छी ही हालतमें होते हैं, इसलिये इनमें देश- इस प्रकार प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रंथोपरसे कर्मभूमिसंयमकी पात्रता और भी अधिक सम्भव जान पड़ती है। समप्रणधि अन्तरद्वीपजमनुष्योंके नीचगोत्री होने और ऐसी हालतमें यह कहना कुछ भी असंगत मालूम नहीं देशसंयम धारण कर सकने का जो निष्कर्ष निकलता है होता कि ये लोग तिर्यंचोंकी तरह नीचगोत्री होनेके यह पाठकोंके सामने है। आशा है विद उमन इसपर साथ साथ देशसंयत नामके पांचवें गुणस्थान तक जा विचार करने की कृपा करेंगे। सकते है।
वीरसेवामंदिर, सरसावा; ता०३-३-२६३६