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________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं० २४६५ शताब्दीके करीब हुए है,अपने वरांगचरित केछठे सर्गमें दिग्विजयके अनन्तर भरत चक्रवर्तीकी विभूतिके वर्णनमें तिर्यंचगतिके दुःखों और उसके कारणोंका वर्णन करते शामिल किया है, जिससे यह मालूम होता है कि भरतहुए लिखते हैं : चक्रवर्तीने अन्तरद्वीपोंको भी अपने प्राधीन किया है सुसंयतान्वाग्भिरधिक्षिपन्तो संयतेभ्यो ददते सुखाय । और इसलिये वे द्वीप भोगभूमिके क्षेत्र नहीं हैं । श्रादितिर्यड्मुखास्ते च मनुष्यकल्पा दीपान्तरेषु प्रभवन्त्यभद्राः पुराणका वह वाक्य इस प्रकार हैकेचित्पुनर्वानरतुल्यवक्ताः केचिद्गजेद्रप्रतिमाननाश्च । भवेयुरन्तरद्वीपाः षट्पंचाशत्पमा मिताः। अश्वानना मेएर मुखाश्चकेचिदजोष्ट्रवक्तामहिषीमुखाश्च। कुमानुषजनाकीर्णा येऽविस्य खिलायिताः॥६५॥ __अर्थात्-जो लोग सुसंयमी पुरुषोंका वचनों द्वारा -पर्व ३७वां तिरस्कार करते हुए असंयमी पुरुषों (अपात्रों) को सुखके अब इस विषयमें तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके कथनको लिये दान देते हैं वे द्वीपान्तरोंमें तिर्यंचमुख वाले अभद्र भी लीजिये, जो अनेक ग्रन्थकथनोंके समन्वयरूप जान प्राणी (कुमानुष) होते हैं, जिन्हें 'मनुष्यकल्प'-मनुष्योंसे पड़ता है । श्रीविद्यानन्दाचार्य 'आर्या म्लेच्छाश्च' इस सूत्रकुछ हीन-समझना चाहिये। इनमेंसे कोई बन्दर-जैसे की टीकामें,म्लेच्छमनुष्योंके अन्तरद्वीपज और कर्मभूमिज मुखवाले, कोई हाथी-जैसे मुखवाले, कोई अश्वमुख, कोई ऐसे दो भेद करनेके बाद 'श्राद्याः षरणवतिः ख्याता मेंढामुख, कोई बकरामुख, कोई ऊँटमुख,और कोई भैस- वार्घिद्वयतटद्वयोः' इस वाक्यके द्वारा अन्तरद्वीपोंको मुख होते हैं। लवणो दधि और कालो दधिके दोनों तटवर्ती द्वीप भेद ___ साथ ही, सातवें सर्गमें निम्न वाक्य-द्वारा, उन्होंने के कारण ६६ प्रकार के बतलाते हुए, लिखते हैंयह भी सूचित किया है कि अपात्रदानका फल. कुमानुषों "ते च केचिद्भोगभूमिसमप्रणिधयःपरेकर्मभूमिमें जन्म लेकर और सुपात्रदानका फल भोगभूमिमें जन्म समप्रणिधयःश्रयमाणा कीहगायुरुत्सेधवृत्तयइत्याचष्टेलेकर भोगना पड़ता है, इससे अपात्रदान त्याज्य है- भोगभूम्यायुरुत्सेधवृत्तयो भोगभूमिभिः । अपात्रदानेन कुमानुषेषु सुपात्रदानेन च भोगभूमौ । समप्रणिधयः कर्मभूमिवत्कर्मभूमिभिः ।। फलं लभन्ते खलु दानशीलास्तस्मादपात्र परिवर्जनीयम् भोगभूमिभिःसमानप्रणिधयोऽन्तरद्वीपजा म्लेच्छा इन दोनों कथनों से स्पष्ट है कि भीजटा-सिंहनन्दी- भोगभूम्यायुरुत्सेघवृत्तयःप्रतिपत्तव्याः, कर्मभूमिभिःसमश्राचार्यने अन्तरढीपज मनुष्योंको प्रायः तिर्यंचोंकी कोटिमें प्रणिधयःकर्मभूम्यायुरुत्सेधवृत्तयस्तथानिमित्तसद्भावात्।" रक्खा है, उन्हें 'मनुष्यकल्प' तथा 'कुमानुष' बतलाया इन वाक्योंके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है है और भोगभूमिया नहीं माना। कि-'उन अन्तरदीपज मनुष्योंमेंसे कुछ तो किसी भीजिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें अंतरद्वीपोंको किसी अन्तरदीपके निवासी तो—'भोगभूमिसमप्रणिधि' कुमानुषजनोंसे भरे हुए लिखा है और साथ ही उन्हें है और शेष सब 'कर्मभूमिसमप्रणिधि' है । जिनकी यह अन्य प्रो. ए. एन. उपाध्याय एम.ए.के श्रायु, शरीरकी ऊंचाई और वृत्ति (प्रवृत्ति अथवा भाजीद्वारा सुसंपादित हो कर अभी माणिकचन्दग्रन्थमालामें विकाके साधन ) भोगभूमियोंके समान है उन्हें 'भोगप्रकट हुआ है। भूमिसमप्रणिधि' कहते हैं और जिनकी आयु, ऊँचाई
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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