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________________ गोरवगाथा पर हमारे पराक्रमी पूर्वज राजा हरसुखराय [ले. अयोध्याप्रसाद गोयलीय] भी दिन थे, जब हमारे पर्वज लक्ष्मीकी होना सम्भव नहीं। इसीलिये व लक्ष्मीको ठकराते थे अाराधना न करके उस पर शासन करतं और उसके बल पर सम्मान नहीं चाहते थे; पर होता ५ ! धनको कौड़ियोंकी तरह बखेरते थे, पर वह कम न था इसके विपरीत । लक्ष्मी उनके पाँवाँस लगी फिरती होता था! ग़रीब-गुरबानोंकी इम्दाद करते थे, मगर थी। कोयलोंमें हाथ डालते तो अशर्फियां बन जाती थीं डरते हुए !-कहीं ऐसा न हो कोई भाई बुरा मान जाय और सांप पर पांव पड़ता था तो वह रत्न-हार बन और कह बैठे----"हम ग़रीब हुए तो तुम्हें धन्नासेठी जाता था। जतानी नसीब हई!" धार्मिक तथा लोकोपयोगी कार्यो- व लक्ष्मीके लिये हमारी तरह वीतराग भगवान्को म लाखों रुपये लगाते थे, परन्तु भय बना रहता था कि रिझानेका हास्यास्पद प्रयत्न नहीं करते थे। और न कहीं किसीको यात्म-विज्ञापनकी गन्ध न श्राजाए ! धेलीकी खील-बताशे गले में बांटते हुए मंगतोंके सर पर किए हा धर्म-दानकी प्रशंमा सुन पड़ती थी तो बहरे पांव रखकर दानवीर कहलानेकी लालमा रखते थे। बन जाते थे, जिससे श्रात्म-प्रशंसा सुन कर अभिमान पांच अानेकी काटकी चौकी मन्दिर में चढ़ाते हुए उनके न हो जाय ! व लक्ष्मीके उपासक न होकर वीतरागके पायों पर चारों भाइयोंका नाम लिखानेकी इच्छा नहीं उपासक थे । लक्ष्मीको पूर्व संचित शुभ कर्मीका उपहार रखते थे और न अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नीकी पवित्र स्मृति न समझ कर कुमार्गकी प्रवर्तक समझते थे। उनका में सवा रुपयेका छतर चढ़ा कर कीर्ति ही लुटना चाहते विश्वास था--सुईके छिद्रोंमें हजार ऊंटोका निकल थे। उन्हें पद प्रतिष्ठा तथा यश-मानकी लालसा न आना तो सम्भव, पर लक्ष्मीपतिका संसार-सागरसे पार होकर आत्मोद्धारकीही कामना बनी रहती थी।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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