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अनेकान्त
[म्येष्ट, वीर-निर्वाण स०२४१५
नास्ति मातिकतोभेदो मनुष्याणां गवारववत् ,
इस आशयके मूल श्लोक क्रमशः इस प्रकार हैंजातिवात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥ १२ ॥ "कल्पिताश्च त्रयो वर्णाः क्रियाभेदविधानतः ।
(३) रविषेणाचार्य कृत, 'पद्मपुराणमें जाति भेदका शस्थानां च समुत्पत्तिर्जायते कल्पतो यतः ॥१६॥ जो खण्डन किया है वह इस प्रकार है
सारणं यस्य यल्लोके स तेन परिकीर्त्यते। . क्रियाके भेदसे ही तीन वर्षों की स्थापना की गई सेवकः सेवया युक्तः कर्षक: कर्षणात्तथा ॥२०॥ है। 'जाहिरमें जो पहिचान, जिसकी दिखाई देती है, धानुको धनुषो योगाद्यार्मिको धर्मसेवनात् । वह उस ही नामसे पुकारा जाता है-सेवा करनेवाला सत्रियः सततखाणाबाह्मणो ब्रह्मचर्यतः ॥१०॥ सेवक, खेत जोतनेवाला किसान धनुष रखनेवाला
-पर्व ५वाँ तीरन्दाज, धर्मसेवन करनेवाला धर्मात्मा, रक्षा करने- चातुर्विध्यं च यजात्या तत्र युक्तमहेतुकं । वाला क्षत्रिय और ब्रह्मचर्य धारण करनेवाला ब्राह्मण शानं देहविशेषस्य न च श्लोकाग्निसंभवात् ॥१६॥ कहलाता है। जातिकी अपेक्षा अर्थात् जन्मसे चार एश्यते जातिभेवस्तु पत्र तत्रास्य संभवः । भेद मानना ठीक नहीं हैं। लोकपाठ और अग्नि-संस्कार- मनुष्यहस्तिवालेपगोवाजिप्रभृतौ यथा ॥१६॥ से भी देह विशेषका बोध नहीं होता है। जहाँ जाति मच जात्यंतरस्थेन पुरुषेण सियां कचित् । भेदकी सम्भावना है, वहां वह दिखाई देता ही है, जैसे क्रियते गर्भसंभूतिर्विप्रादीनां तु जायते ॥१६॥ कि:-मनुष्य, गाय, हाथी, घोड़ा आदिमें । गैर जाति प्रश्वायां रासभेनास्ति संभवोऽस्येति चेनसः । वाले नरसे किसी भी स्त्री जातिमें गर्भधारण नहीं कराया नितांतमन्यजातिस्थशकादितनुसाम्पतः ॥१६॥ जासकता । लेकिन, ब्राह्मण आदि जातियों में आपसमें यदि वा तद्वदेव स्पा द्वयोर्विसशःसुतः । ऐसा होजाता है। कोई कहै कि गधेसे घोड़ीमें गर्भ रह मात्र टं तथा तस्माद्गुणैर्वर्णव्यवस्थितिः ॥१६॥ सकता है, यह ऐतराज ठीक नहीं है, उनके शरीरकी ऋषिभंगादिकानां मानवानां प्रकीर्यते। . समानता होने के कारण वे बिल्कुल दूसरी जातिके नहीं बाह्मण्यं गुणयोगेन न तुत योनिसंभवात् ॥२०॥ है। अगर उन दोनोंसे भिन्न प्रकारकी औलाद पैदा नजातिर्गहिता काचिद्गुणाः कल्याणकारणं ।
हो तो ऐसा मनुष्यों में होता नहीं है । इस कारण वर्ण- व्रतस्थमपि चांडालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥२०३॥ • व्यवस्था गुणोंसे ही माननी चाहिये-जन्मसे नहीं। ऋषि चातुर्वण्यं यथान्यच चांडालादिविशेषणं । अंगादिका ब्राह्मणपन, उनके गुणके कारण ही माना ___ सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतं ॥२०॥ गया है, ब्राह्मण योनिमें जन्म लेने के कारण नहीं । कोई
-पर्व ११वाँ जाति नित्य नहीं है,गुण ही कल्याणकारी हैं। व्रतधारण (४) श्री अमितगति प्राचार्यने भी धर्मपरीक्षाके करनेवाले चाण्डालको भी प्राचार्योंने देव ब्राह्मण १७वें परिछेदमें जातिभेदका खंडन इस प्रकार किया कहा है। चार वर्ण और चाण्डालादि विशेषण जो है-'प्राचार मात्रके मेदसे ही जाति भेद किया जाता मनुष्यों के होते हैं, वे सब प्राचार भेदके कारण ही माने है। ब्राह्मण आदिकी जाति जन्मसे मानना ठीक नहीं जाते हैं।