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वर्ष , किरण ८]
वीर प्रभुके धर्ममें जाति भेदको स्थान नहीं है
नहीं माने जा सकते हैं । जो क्षमा, शौच आदि गुणोंके तबाहेती विधा मियां शक्ति गुरुषसंमिता। धारी हैं, सन्तोषी हैं, उत्तम और निर्दोष श्राचरणोंसे स्वसारकृत्य समुद्भूता वयं संस्कारजन्मना ॥१॥ भूषित हैं, वे ही सब वर्षों में श्रेष्ठ हैं । जो अत्यन्त विशुद्ध अयोनिसंभववास्तेनदेवा एव न मानुगः । वृत्तिको धारण करते हैं, उनको शुक्ल वर्गी अर्थात् महा वयं वयमिवान्येऽपि संति चेदा हि तद्विधान् ॥११॥ पवित्र उज्वल वर्णवाले मानना चाहिये और बानीको विश्यमूर्तेजिनेन्द्रस्य शामगादनावितात् । शुद्धतासे बाहर समझना चाहिये ।
समासादितनम्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥१३॥ __ मनुष्योंकी शुद्धि-अशुद्धि, उनके न्याय-अन्याय रूप पांतःपातिनो नैते मंतम्या हिजसत्तमाः। पाचरणसे ही जाननी चाहिये । दयासे कोमल परिणामों- व्रतमंत्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ॥१३॥ का होना न्याय है और जीवोंका घात करना अन्याय है। वर्णोत्तमानिमान् विभः शांतिशौचपरापणान् । विशुद्ध आचरण होने के कारण जैनी ही उत्तम वर्ण के हैं संतुष्टान् प्राप्तवैशिष्टयानलिस्टाचारभूषणान् ॥१३२॥
और द्विज हैं। वे किसी प्रकार भी वर्ण में घटिया नहीं ये विशुद्धतरो वृत्ति तस्कृतां समुपाश्रिताः । माने जा सकते हैं।'
ते शुक्लवर्गे मोडम्याः शेषाःसर्वे:बहिःकृताः ॥१४॥ श्रादिपुराण पर्व ३६ के उक्त श्लोक क्रमशः इस तच्छुयशुद्धी बोडण्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः। प्रकार हैं :
न्यायो दयाईवृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणं ॥१४॥ धम्यराचरितैः सत्यशौचक्षतिदमादिभिः ।
विशुद्ध वृत्तयस्तस्माजना वर्णोत्तमा द्विजाः। देवब्राह्मणतां श्लाघ्यो स्वस्मिन्संभावयत्यसौ ॥१०॥ वांतःपातिनो नेते जगन्मान्या इति स्थितं ॥१४२ अथ जातिमदावेशाकश्चिदेनं द्विजत्रुवः ।
(२) इस ही जाति भेदका खंडन श्रीगुणभद्राचार्य यादेवं किमयैव देवभूयंगतो भवान् ॥१०॥ कृत उत्तरपुराण पर्व ७४ में इस प्रकार किया है:स्वमामुष्यायणःकिन कि तेज्वाऽमुष्यपुत्रिका। 'मनुष्य के शरीर में ब्राह्मणादि वर्गों की पहचानकायेनेघमुझसोभूत्वा यास्यसस्कृत्य मद्विधान् ॥१०॥ शकल सूरत श्रादिका-कोई किसी प्रकारका भी भेद जातिः सैव कुलं तच सोऽसि योसि प्रगेतनः। नहीं दीखता है और शूद्र आदिकके द्वारा ब्राह्मणी श्रादि तथापि देवतास्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥११०॥ को भी गर्भ रह जाना। संभव होनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, देवताऽतिथिपित्रग्निकार्येप्वप्राकृतो भवान् । वैश्य और शूद्रमें ऐसा कोई जाति भेद नहीं है जैमा कि गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामात्र पराङ्मुखः ॥१॥ गाय और घोड़े आदि में पाया जाता है अर्थात् ब्राह्मण, दीक्षां जैनी प्रपत्रस्य आतः कोऽतिशयस्तव । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में प्राकृतिक कोई भेद नहीं है, यतोऽयापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन् ॥११२ किन्तु पृथक पृथक् आजीविका करने के कारण ही उनमें इत्युपास्वसंरंभमुपाखब्धः स केनचित् । भेद मान लिया जाता है । यास्तवमें तो इन सबकी एक वदात्युत्तरमित्यस्मै वचोमियुक्तिपेशः ॥११॥ ही मनुष्य जाति है।' यथाभूयतां भो दिवमन्य त्वयात्मदिव्यसंभवः । वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । जिनो जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गर्भोऽतिनिर्मखः 11 वाहण्याविषयहाचैर्गर्भाधानप्रवर्तनात् ॥११॥