SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ अनेकान्त एक आदमीने इन क्षत्रपोंसे राज छीन लिया । वह कोई श्रभीर सेनापति मालूम होता है, क्योंकि उन दिनों श्राभीर लोग बहुत जोरों पर थे और राजपूताने के पूर्व तरफ बसे थे, इन आभीरोंने दक्षिणका राज्य भी सातवाहनों से छीन लिया था । इसके बाद एकसौ बरस तकके इतिहासका कुछ भी पता नहीं लगता है । ईस्वी ३०८ में पाटलीपुत्र नगर के पास किसी ग्रामके एक छोटेसे राजा चन्द्रगुप्तको लिच्छवि वंशकी कन्या कुमारदेवी व्याही गई । यह लिच्छवि वंश वैशालीके उस राजा चेटकका वंश है जिनकी कन्याओंसे श्री महावीरस्वामीके पिता राजा सिद्धार्थ और मगध देशके राजा श्रेणिक व्याहे गये थे । चन्द्रगुप्तने ऐसे महान वंशकी कन्यासे व्याह होनेको अपना बहुत भारी गौरव माना, वास्तवमें इस सम्बन्धके प्रतापसे ही वह महाराज हो गया। और चन्द्रगुप्तका राज्य शुरू हुआ। उसने अपने सिक्कों पर लिच्छवियोंकी बेटीके नामसे अपनी स्त्रीकी भी मूर्ति बनवाई। उसकी सन्तान बड़े गर्व के साथ अपनेको लिन्छियोंके दोहते कहा करती थी । चन्द्रगुप्त ने अपना राज तिहुत, बिहार और अवध तक फैलाया, विष्णुबंधु नामके बौद्ध साधुके उपदेशसे उसने बौद्ध-धर्म ग्रहण किया और शिक्षाके वास्ते अपने बेटे समुद्रगुप्त को उसकी शागिर्दीमें दिया । ईस्वी ३३१ में उसका देहान्त हो गया और समुद्रगुप्त राजा हुआ । वह ब्राह्मण धर्मी हुआ, बड़ी-बड़ी लड़ाई लड़ी, दूर-दूर तक राज्यका विस्तार किया। उसने सारा हिन्दुस्तान, दक्खन, उड़ीसा, बंगाल और श्रासाम [मार्गशिर, वीर- निर्वाण सं० २४६५ सब जीत लिया, यहाँ तक कि मध्यदेश और दक्खनके सब जंगली राजा भी जीते। दक्खन से वह असंख्य धन लूटकर लाया । उत्तरमें नैपाल, कमाऊं, गढ़वाल और कांगड़ा भी जीता, पच्छिममें मालवा और राजपूतानाके राजा भी अपने अधीन किये। इस भारी दिग्विजयके बाद उसने अश्वमेध यज्ञ किया, और असंख्य द्रव्य ब्राह्मणों को दिया, सिक्कों पर यज्ञ-स्तम्भसे बंधे हुए घोड़ेकी मूर्ति बनी है, और ""श्रश्रमेध पराक्रम" लिखा हुआ है। पचास बरस राज्य करनेके बाद ईस्वी ३७५ में उसका देहान्त हुआ । उसका बेटा गद्दी पर बैठा जो चन्द्रगुप्त द्वितीयके नामसे प्रसिद्ध हुआ, उसने अपना नाम विक्रमादित्य रखा । उसने पच्छिममें चढ़ाई कर मालवेको जीता, फिर काठियाबाड़ और गुजरातको शकोंके हाथसे छीना । वह कट्टर हिन्दू था और शकों को बिल्कुल ही समाप्त करदेना चाहता था । कहते हैं कि उसहीने शक राजा सत्यसिंहके बेटे रुद्रसिंहको क़त्ल किया और सारा राज लेकर उनका अधिकार हिन्दुस्तान से उठा दिया । ईस्त्री ४१३ में उसका बेटा कुमारगुप्त राजा हुआ। वह अपनी राजधानी पाटलीपुत्रसे उठाकर अयोध्या ले गया। उसने भी अश्रमेध यज्ञ किया। ईस्वी ४५५ में उसका देहान्त हो गया, जिसके बाद उसका बेटा स्कंदगुप्त गद्दी पर बैठा । उसही वक्त हूण नामकी जंगली जाति चीनक उत्तर परिमसे आकर भारी लूटमार करने लगी थी, उसने बड़ी बहादुरीसे हूणों को हटाया और जीतकी खुशीमें एक भारी लाट बनवाई, जिसके
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy