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________________ ४५४ अनेकान्त पीर-निर्वाण स०२४६५ उनका रहस्य मुमुक्षुओंके समक्ष रखना मुझे प्रात्माके कल्याणके लिये चिन्ता करना शुरू करअच्छा लगता है । इस समय तो मेरा प्रयास दिया। उस समय मैं अपना एक ही कर्तव्य समझ केवल मित्रके मंतोषके लिये है । उनके संस्मरणों सका कि जबतक मैं हिन्दूधर्मके रहस्यको पूरी पर न्याय देनेके लिये मुझे जैनमार्गका अच्छा तौरसे न जान लूँ और उससे मेरी आत्माको परिचय होना चाहिये, मैं स्वीकार करता हूँ कि वह असंतोष न हो जाय, तबतक मुझे अपना कुलधर्म मुझे नहीं है । इसलिये मैं अपना दृष्टि-बिन्दु अत्यंत कमी न छोड़ना चाहिये । इसलिये मैंने हिन्दू धर्म संकुचित रक्तूंगा। उनके जिन संस्मरणोंकी मेरे और अन्य धर्मोंकी पुस्तकें पढ़ना शुरू करदी । जीवन पर छाप पड़ी है, उनके नोट्स, और उनसे क्रिश्चियन और मुसलमानी पुस्तकें पढ़ीं। विलायतजो मुझे शिक्षा मिली है, इम ममय उसे ही लिख के अंग्रेज मित्रोंके साथ पत्र व्यवहार किया। उनके कर मैं मन्तोष मानूंगा। मुझे आशा है कि उनसे समक्ष अपनी शंकाएं रक्खीं। तथा हिन्दुस्तानमें जो लाभ मुझे मिला है वह या वैसा ही लाभ उन जिनके ऊपर मुझे कुछ भी श्रद्धा थी, उनसे पत्रमंस्मरणोंके पाठक मुमुक्षुओंको भी मिलेगा। व्यवहार किया। उनमें रायचन्द भाई मुख्य थे । 'मुमुक्त' शब्दका मैंने यहाँ जान बूझकर प्रयोग उनके साथ तो मेरा अच्छा सम्बन्ध हो चुका था। किया है । मब प्रकारके पाठकोंके लिये यह पर्याप्त उनके प्रति मान भी था, इसलिये उनसे जो मिल नहीं। मके उसे लेनेका मैंने विचार किया। उसका फल ___ मेरे ऊपर तीन पुरुषोंने गहरी छाप डाली है- यह हुआ कि मुझे शांति मिली। हिन्दुधर्ममें मझे टालस्टॉय, रस्किन और गयचन्द्र भाई । दालम्टॉ- जो चाहिये वह मिल सकता है, ऐसा मनको वियने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोड़े श्वास हुआ । मेरी इस स्थितिके जवाबदार रायचन्द पत्र व्यवहारसे: रस्किनने अपनी एक ही पस्तक भाई हुए, इससे मेरा उनके प्रति कितना अधिक 'अन्टदिसलास्ट' मे. जिसका गुजराती अनुवाद मान होना चाहिये, इसका पाठक लोग कुछ अनमैंने 'सर्वोदय' रक्खा है: और रायचन्द भाईने मान कर सकते हैं। अपने साथ गाढ़ परिचयसे । जब मुझे हिन्दू धर्म इतना होनेपर भी मैंने उन्हें धर्मगुरु नहीं माना। में शंका पैदा हुई उम ममय उपके निवारण करने- धर्मगुरुकी तो मैं खोज किया ही करता हूँ, और में मदद करनेवाले गयचन्द भाई थे। सन् १८९३ अबतक मुझे सबके विषय में यही जवाब मिला में दक्षिण आफ्रिकामें मैं कुछ क्रिश्चियन मजनोंके है कि 'ये नहीं।' ऐसा सम्पूर्ण गुरु प्राप्त करनेके विशेष सम्बन्धमें आया। उनका जीवन स्वच्छ लिये तो अधिकार चाहिये, वह मैं कहाँ से लाऊँ ? था। वे चुस्त धर्मात्मा थे । अन्य धर्मियोंको क्रिश्चियन होनेके लिये ममझाना उनका मुख्य व्यवसाय था । यद्यपि मेरा और उनका सम्बन्ध व्यावहारिक रायचन्द भाईके साथ मेरी भेंट जौलाई सन कार्यको लेकर ही हुआ था तो भी उन्होंने मेरी १८६१ में उम दिन हुई जब मैं विलायतसे बम्बई प्रथम भेंट
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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