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________________ ফ্লাক্সান্ধিজ্বিলহ্মীল্ডিীরাঙ্ক্ষীৱী प्राधारभूमि [do-५० परमानंदजी जैन शाखी ] पताम्बर जैनसमाजके प्रन्थकारोंमें आचार्य तक मुझे मालूम है जैन समाजमें न्यायशास्त्रको देवसूरि अपने समयके अच्छे विद्वान् गद्य सूत्रोंमें गॅथने वाला यह पहला ही प्रन्थ है । माने जाते हैं। धर्म,न्याय और साहित्यादि-विषयों- आकारमें छोटा होते हुए भी यह गंभीर सूत्रकृति में आपकी अच्छी गति थी। वादकलामें भी आप आपकी विशाल प्रतिभा और विद्वत्ताकी परिनिपुण थे, इसी कारण आपको वादिदेवसूरिके चायक है। प्राचार्य प्रभाचन्द्रने इस पर 'प्रमेयकनामसे पुकारा जाता है। आपका अस्तित्व समय मलमार्तण्ड' नामकी एक विशाल टीका लिखी है विक्रमकी १२ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध सुनिश्चित है। जो बहुत ही गंभीर रहस्यको लिये हुए है और __ वादिदेवसूरिकी इस समय दो रचनाएँ उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभाका द्योतन करती है।। उपलब्ध हैं-एक प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार इस परीक्षामुख' के साथ जब प्रमाणनयतऔर दूसरी स्याद्वादरत्नाकर । 'स्याद्वादरत्नाकर' वालोकालंकार'का मिलान किया गया तो मालम प्रथम ग्रंथकी ही टीका है। ये दोनों ग्रंथ मुद्रित हुआ कि यह ग्रन्थ उक्त परीक्षामुख' को सामने हो चुके हैं। इनमेंसे प्रथम ग्रंथ प्रमाणनयतत्त्वा- रखकर ही लिखा गया है और इसमें उसका बहुत लोकालंकारकी मुख्य आधारभूमिका-विचार ही कुछ अनुसरण किया गया है। सूत्रोंके कुछ शब्दोंमेरे इस लेखका विषय है। जिस समय मैंने इस को ज्योंका त्यों उठाकर रक्खा गया है, कुछको आगेग्रंथको देखा तो मुझे प्राचार्य माणिक्यनन्दीके पीछे किया गया है, कुछके पर्याय शब्दोंको अपना'परीक्षामुख' ग्रंथका स्मरण हो पाया। कर भिन्नताका प्रदर्शन किया गया है और कुछ आचार्य माणिक्यनन्दी दिगम्बर जैनसमाज- शब्दोंके स्पष्टार्थ अथवा भावार्थको सूत्रमें स्थान में एक सम्माननीय विद्वान होगये हैं । आपका दिया गया है । साथ ही, कहीं कहीं पर कुछ विशेसमय विक्रमकी प्रायः आठवीं शताब्दि है । षता भी की गई है। दोनों ग्रंथों में सबसे बड़े भेदकी आपने अकलंक आदि प्राचार्योंके ग्रन्थोंका दोहन बात यह है कि प्राचार्य माणिक्यनन्दीने अपने करके जो नवनीतामृत निकाला है वही आपके सूत्र ग्रंथको केवल न्यायाशास्त्रकी दृष्टिसे ही संकपरीक्षामुख ग्रन्थमें भरा हुआ है। 'प्रमेयरत्नमाला' लित किया है और इसलिये उसमें आगमिक टीकाके कर्ता आचार्य अनन्तवीर्यने ठीक ही कहा है परम्परासे सम्बन्ध रखनेवाले अवग्रह, ईहा, कि-'आपने अकलंकदेवके वचन-समुद्रका मंथन अवाय, और धारणा तथा नयादिके स्वरूपका करके यह न्यायविद्याऽमन निकाला है । जहाँ समावेश नहीं किया है। प्रत्यत इसके, वादिदेवसूरि अकलंकवचोम्बोधेरुदभ्रे येन धीमता। ने अपने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारमें न्यायधि न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनंदिने । और आगमिक परम्परासे सम्बन्ध रखनेवाले -प्रमेयरत्नमालायां, अनन्तवीर्यः। प्रायः सभी विषयोंका संग्रह किया है। इसमें ८
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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