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वर्ष २, किरण १०]
प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारकी प्राधारभूमि
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परिच्छेद या अधिकार दिये हैं जबकि परीक्षामुख' लोकालंकारमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। में छह ही अध्याय हैं । उनमें से दो अधिकारोंका इसमें अधिकांश सूत्रोंको व्यर्थही अथवा भनाषनामकरण तो वही है जो 'परीक्षामुख, के शुरूके श्यकरूपसे लम्बा किया गया है और सूत्रोंके दो अध्यायोंका है । तीसरे अधिकारमें परोक्ष- लाघव पर यथेष्ट दृष्टि नहीं रक्खी गई है । फिर प्रमाणके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान भी न्यायशास्त्रके जिज्ञासुभोंके लिये यह पन्ध कुछ इन चार भेदोंका ही वर्णन किया है । चौथे कम उपयोगी नहींहै। विषयाधिस्य मादिके कारण अधिकारमें परोक्षप्रमाणके पांचवें भेद यह अपनी कुछ अलग विशेषता भी रखता है । 'भागम' के स्वरूपका वर्णन दिया है। जब कि अब में परीक्षामुख और प्रमाणनयतत्वा'परीक्षामुख' में परोक्षाप्रमाणके उक्त पांचों भेदों- लोकालंकारके कुछ थोड़ेसे ऐसे सूत्रोंका दिग्दर्शन का तीसरे अध्यायमें ही वर्णन किया है । पांचवें करा देना भी उचित समझता हूँ जिनसे पाठकों अधिकारका नामकरण और विषय वही है जो पर तुलना-विषयक उक्त कथन और भी स्पष्ट हो परीक्षामुखके चतुर्थ अध्यायका है। छठे अधिकार- जाय और उन्हें इस बातका भी पता चल जाय में परीक्षामुखके ५ वें और छठे अभ्यायके विषयको किवादिदेवसूरिकी प्रस्तुत रचना प्रायः परीक्षामिलाकर रक्खा गया है। शेष दो अधिकार और मुखके आधार पर उसीसे प्रेरणा पाकर खड़ी दिये हैं जिनमें क्रमसे नय, नयाभास और वादका की गई है। इससे परीक्षामुखके सूत्रों में किये गये वर्णन किया है। इनका विषय परीक्षामुखमें नहीं परिवर्तनोंका भी कुछ मामास मिल सकेगा और है; परन्तु वह अकलंकादिके प्रन्थोंसे लिया गया पाठक यह भी जान सकेंगे कि एक प्राचार्यकी जान पड़ता है, जिसका एक उदाहरण इस प्रकार कृतिको दूसरे प्राचार्य किस तरह अपनाकर
सफलता प्राप्त कर सकते थे । वह दिग्दर्शन इस गुणप्रधानमावेन धर्मचोरेकर्मिति।
प्रकार है:विवश नैगमो..................... ॥६ ॥ "स्वापूर्वार्थव्यवसापात्मकं ज्ञानं प्रमा।" - -सधीपस्त्रये, प्रकलंक:
-परीक्षामुख, १,१ धर्मयोधर्मियोधर्म-धार्मिजोरच प्रधानोपसर्जनभावेन "सापरण्यवसायि ज्ञान प्रमाणं।" यद्विवपणं सलामो नैगमः।
-प्रमाणनयतत्वा०, १,२ -प्रमाणनवतत्वा०,७-० __ "हिताहितप्रातिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो उक्त दोनों ग्रन्थोंको तुलनात्मक अध्ययन करने
ज्ञानमेव तत्" और निष्पक्ष दृष्टि से विचार करनेपर यह बात
-परीक्षामुख, १,२ स्पष्ट समझमें भाजाती है कि जो सरसता, "अभिमतानमिमतवस्तुत्वीकारतिरस्कारचमं हि गम्भीरता और न्यायसूत्रोंकी संक्षिप्त कथन-शैली प्रमागमतोशानमेवेदम् ।" परीक्षामुखमें पाई जाती है वह न प्रमाणयतत्त्वा
-प्रमाणनयतस्वा०, १,३