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________________ अनेकान्त [ फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं० २४६५ अभयतिलक गणिकी १७५७४ श्लोक प्रमाण टीका है। विभाजित है। इसमें विश्वकोपके समान प्रत्येक शब्दके और प्राकृत काव्य पर पूर्णकलश गणिकी ४२३० श्लोक अधिक से अधिक कितने अर्थ होसकते हैं; यह बतलाया प्रमाण टीका है । दोनों ही काव्य सटीकरूपसे बम्बई गया है । मूल १८२६ श्लोक प्रमाण है । इसपर भी संस्कृत सीरीज द्वारा प्रकाशित होचुके हैं । ६०३० श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ वृत्ति है। कहा जाता है कि प्राचार्य हमचन्द्र ने “मतसंधान तीसग कोश "देशीनाम माला" है । जो कि भाषामहाकाव्य" और "नाभेय-नेमिद्विसंधान" महाकाव्यको विज्ञानकी दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी और उपादेय ग्रंथ भी रचना की थी। किन्तु वर्तमान में उनकी अनुपलब्धि है। जी शब्द संस्कृत-भाषाकी दृष्टि से न तो तदरूप है, होने से नहीं कहा जा सकता है कि यह उक्ति कहां न तद्भव है और न तत्मम हैं, वे देशी कहलाते हैं । तक सत्य है । लेकिन सचन्द्रकी प्रतिभाको देखते भापा-विकासका अध्ययन करने, नष्ट प्रायः तत्कालीन हुए यह कल्पना सत्य प्रतीत होती है कि सप्तसंधान भाषायोको सीखने और प्राचीन भ पात्रों के अवशिष्ट काव्य और द्विसंधान काव्यकी रचना करना उनकी माहित्यका जीणोद्धार करनेकी दृष्टिसे यह कोप एक शक्तिके बाहिरकी बात नहीं थी। बहु मूल्य साधन है । आचार्यश्रीकी यह कृतिभी विद्वानोंचार कोष-ग्रन्थ के लिक अलंकार समान है । मूल ८५० श्लोक प्रमाण "ध्याकरण और काव्य" रूप ज्ञान-मन्दिरके है। इसपर भी स्वोपज रत्नावलि नामक ३५०० श्लोक स्वर्ण-कलश समान चार कोप ग्रन्थोंका भी प्रमाग वृत्ति है । “शेप-नाममाला” के रूपमें एक आचार्य हेमचन्द्र ने निर्माण किया है । प्रथम परिशिष्टांशरूप कोप भी पाया जाता है; जो कि २२५ कोपका नाम "अभिधान-चिन्तामणि" है। यह श्लोक प्रमाण कहा जाता है। छः काण्डोंमें विभाजित है। अमरकोपके समान होता चौथा कोष "निघटु-शेप' है। जिसमें वनस्पतिके हुआ भी इसमें उसकी अपेक्षा शब्द संख्या ड्योढीके नाम भेदादि यतलाये गये हैं। यह आयुर्वेद-विज्ञान लगभग है। यह मूल १५९१ श्लोक संख्या प्रमाण है। और श्रीपधि विज्ञानकी दृष्टि में एक उपयोगी और लाभ इसपर दस हज़ार श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ टीका भी है प्रद ग्रन्थ है। इससे आचार्यश्री की आयुर्वेद-शास्त्रम दुसग कोष "अनेकार्थ-संग्रह" है। यह सात काण्डोंमें भी अव्याहतगति थी-एमा प्रतीत होता है। छटवी किरण में समाप्त ) सुभाषित दो बातनको भूल मत जो चाहत कल्याण । पर-द्रोही पर दार-रत पर-धन पर-अपवाद । "नारायण" एक मौतको दजे श्रीभगवान ॥ ते नर पामर पापमय देह धरें मनजाद ॥ "कबिरा" नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय । जाके घट समता नहीं ममता मगन सदीव । यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखो आय ॥ रमता राम न जानही सो अपराधी जीव ।। चाह गई चिन्ता गई मनुऑ बेपरवाह । राम रसिक अरु राम रस कहन सुननको दोय । जिसको कछू न चाहिये सो जन शाह-शाह || जब समाधि परगट भई तब दुविधा नहिं कोय । -संकलित
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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