________________
२७२
अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४६५
अर्थात् जितना उससे हो सकता है वह धर्म-साधन भी जाती है, सुबह होनेको तीन घण्टेकी देर है, रातको करता है और विषयकषायों की पूर्ति भी करता है, इसही उठकर नहानेकी हिम्मत नहीं, तब यदि ऐसी अवस्थामें कारण रत्न-करंड श्रावकाचारमें श्री समन्तभद्र स्वामीने परमात्माका ध्यान, स्तुति आदि नहीं कर सकता तो भोगोपभोग परिमाण-व्रतका वर्णन करते हुए, त्यागने धर्मको धक्का लगा कि नहीं। योग्य विषयों में स्नानका भी नाम दिया है
उत्तमचन्द-आपभी गज़ब करते हैं। कहीं ऐसा भी भोजन-वाहन-शयन-स्नान अपवित्राङ्ग-रागकसमेष। हो सकता है कि अपवित्र रहनेके कारण कोई परसात्मा ताम्बूल वसन भूपण मन्मथ-संज्ञीत गीतेषु ।
की स्तुति, भक्ति न कर सके ऐसा होता तो ऐसा क्यों भावार्थ-भोजन, सवारी, बिस्तर, स्नान, सुगन्ध,
कहा जाता है किपुष्पादि ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार काम-भाग, गाना- अपवित्रः पावत्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। बजाना, इनका नियम रूप त्याग करना । इसही प्रकार ध्यायेत्पंच नमस्कारं सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अमितगति श्रावकाचारमें भी भोगोपभोग परिमाण-व्रत
“अपवित्र पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा । का वर्णन करते हुए अध्याय ६ श्लोक ९३ में स्नान यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः" ॥२॥ करनेको भोग बताकर त्याज्य बताया है..
अर्थात् -काई पवित्र हो वा अपवित्र हो, अच्छी हाँ, जो दूसरी प्रतिमा-धारी अणुव्रती नहीं है, अर्थात् अवस्था में हो वा बुरी में, जो णमोकार मंत्र का ध्यान जिसको भोगोपभोग परिमाण-व्रत नहीं है उसे अवश्य करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है, इसही प्रकार स्नान करना चाहिए। परन्तु स्नान करनेको व्यवहार- जा कोई पवित्र हो वा अपवित्र हो अथवा किसी भी धमका ज़रूरी अंग नहीं मानना चाहिए। ऐसा मानने अवस्थाको प्राप्त क्यों न हो, जो परमात्माका स्मरण से तो व्यवहार-धर्म लोप होता है- उसको भारी धक्का करता है वह अंतरंगमें भी और बाहरसे भी पवित्र है। पहुँचता है।
__ ज्योतिप्रसाद-बस तब तो हमारी आपकी बात उत्तमचन्द-धक्का कैसे पहुँचता है ?
एक हो गई। ज्योतिप्रसाद --स्नान करनेको यदि व्यवहार धर्मका मथुराप्रसाद--आजकी आपकी बातोंसे मुझे तो ज़रूरी अग मान लिया जावे तो जो बीमार बिस्तरस बहुत-ही आनन्द प्राप्त हुआ। मैं तो जैन-धर्मको ऐसा ही नहीं उठ सकता है, महा अपवित्र अवस्था में पडा हा समझता था जैसे हिन्दु सनातनियोंके बे सिर-पैरके ढकोहै, कम-से-कम जो स्नान नहीं कर सकता है, प्रसूता- सले, पर आजकी बातोंसे तो यह मालूम हुआ कि जैनस्त्री जो दस दिन तक जच्चारवाने में महा अपवित्र दशाम मत तो बिल्कुल ही प्राकृतिक धर्म है। वस्तु-स्वभाव पड़ी रहती है, अन्य भी जो कोई किसी दृष्टका बन्दी हो और हेतुवाद पर अवलम्बित है। यदि आप घंटा-आधगया है और स्नान आदि नहीं कर सकता है. वह सब घंटा दे सके तो मैं तो नित्य-ही इस सच्चे धर्मका स्वरूप परमात्माका ध्यान, स्तुति. बंदना आदि कछ भी नहीं सुना करूँ । कर सकेगा। तब तो शायद वह कोई धर्म-भाव भी ज्योतिप्रसाद-आप ज़रूर आया करें जहाँ तक अपने हृदयमें न ला सके, किन्तु एकमात्र पाप परिणाम मुझसे हो सकेगा में ज़रूर जैनधर्मका स्वरूप वर्णन ही अपने हृदयमें लाने पड़ें मन तो चुप रह नहीं सकता; किया करूँगा । जितना आप इसका स्वरूप जानते जायँगे शरीर अपवित्र होनेके कारण जब उसको धर्म-भाव उतना-ही-उतना आपको यह प्रतीत होता रहेगा कि हृदयमें लाने की मनाही होगी तब पाप-परिणाम ही मनमें वास्तव में वस्तु स्वभाव-ही जैन-धर्म है, यह धर्म परीक्षालाने पड़ेंगे, जाड़े में चार बजे ही गृहस्थीकी आँख खुल प्रधानी युक्ति-युक्त और पक्षपात रहित है।
*
*
*