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नुसन्धान
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सिद्धप्रामृत
[ले-श्री पं० हीरालाल जैन शास्त्री ] लगभग १० वर्ष पूर्षकी बात है कि ब्यावरमें रा० बार उल्लेख किया गया है और कहीं कहीं तो
बसेठ चम्पालालजी रामस्वरूपजीकी नशियां प्राचार्य परम्पराभेदको दिखाते हुए भी आदर्शपाठ के शास्त्रभंडारको सँभालते समय किसी गुट के में सिद्धप्रामृतका ही स्वीकार किया गया-सा प्रतीत कुन्द-कुन्दाचार्य-कृत ८४ पाहुड रचे जानेका उल्लेख होता है । यद्यपि कहीं भी स्पष्ट रूपसे उसे दिगम्बर मिला था और साथ ही उसमें लगभग ४३-४४ ग्रन्थ बतानेवाला कोई उल्लेख नहीं है फिर भी पाहुडों के नाम भी देखनेको मिले थे, जिनमेंसे एक २-१ स्थल ऐसे अवश्य हैं जिनसे यह प्रतीत होता नाम 'सिद्धपाहुड' भी था । बादको मूलाराधनानी है कि शायद वह दिगम्बर प्रन्थ हो, और पाश्चर्य छानवीनके समय भी इस नामपर दृष्टि तो गई, पर नहीं कि कुन्दकुन्दके अन्य पाहुडोंके समान यह कार्यव्यासंगसे उधर कोई विशेष ध्यान न देसका। सिद्धपाहुड भी उन्हींकी दिव्य लेखनीसे प्रसूत हुआ पर हाल ही में अनेकान्तकी किरण में पं०परमानन्द हो; पर अभी ये सब बातें अन्धकारमें हैं। शास्त्रीके 'अपराजितसूरि और विजयोदया' शीर्षक नन्दीके सूत्र नं० १६-२० की वृत्तिको प्रारम्भ लेखकी अन्तिम पंक्तियोंसे 'सिद्धपाहुड' की स्मृति करते हुए टीकाकार मलयगिरि लिखते हैं कितापी हो आई और इस विषयका जो कुछ नया "इहानन्तरसिदाः सत्त्वरूपवान्यामायक्षेत्र अनुसंधान मुझे मिला है उसे पाठकोंके परिज्ञानार्थ स्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वरूपैरसमिरनुयोगहारैः परयहाँ देता हूँ।
म्परसिद्धाः सत्पात्मवान्यप्रमाणस्पर्शनाकाबाश्वेताम्बरागमोंमें नन्दीसूत्रको एक विशेष स्थान स्तरमावाल्पबहुत्वसविकल्पैनवमिरनुयोगद्दारैः पत्राप्राप्त है। उसकी मलयगिरीया वृत्तिमें सिद्धोंका विशु पापणसु हारेषु 'सिमामृते' चिन्तिताः ततस्तदस्वरूप वर्णन करते समय सिमाभूतका अनेकों सुसारेण पपमपि विनयजमानुग्रहार्य शतरिक्तवाम।"