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________________ अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं०२४६५५ नहीं करते, बल्कि वह घोषित करते हैं कि जैनधर्म- “नमो अहंतानं फगुयशस नतकसं भयाये शिवकी शरणमें आकर मनुष्यमात्र भ्रातृभावको यशे...३...... आ...आ.. काये प्राप्त होते हैं---जैनी परस्पर भाई-भाई हैं । कमसे आयागपटो कारितो अरहत पूजाये" । कम जैनधर्मायतनों में प्रत्येक वर्ण और जातिके अर्थात-"अहंतोंको नमस्कार ! नर्तक फगु मनुप्यके साथ समानताका व्यवहार जैनसंघमें यशा की स्त्री शिवयशाने .....'अहंतों की पूजाके किया जाता रहा है। इस अपने कथनकी पुष्टि लिये आयागपट बनवाया।" (प्लेट नं० १२) इसी में हम पाठकोंके समक्ष निम्नलिखित शिलालेखीय तरह मथुराके होली दरवाजेसे मिले हुये स्तूप वाले साक्षी उपस्थित करते हैं। आयागपट पर एक प्राकृत-भाषाका लेख निम्न प्रकार है:-- इस्वी सनके प्रारंभ होनेसे पहलेकी बात है। "नमो अहंतों वर्धमानस आराये गणिकायं मध्य ऐशिया से शक जातिकं लोगोंने भारतपर लोणशोभिकाये धितु समण साविकाये आक्रमण किया और यहाँ वे शासनाधिकारी नादाये गणिकाये वसु (ये)आहेतो देविकुल, होगये। पंजाब और गुजरातमें उनका राज्य स्थापित हुआ था । जैनशास्त्रोंकी अपेक्षा देखा आयागसभा, प्रपा आयागसभा, प्रपाशिल (I) प (रो) पतिस्ट जाय तो इन शकादि लोगोंकी गणना म्लेच्छोंमें (1) पितो निगंथानं अर्ह(ता) यतने स (हा) करनी चाहिये; परंतु इतिहास बताता है कि म (1) तरे भगिनिये धितरे पुत्रेण सर्वेन च तत्कालीन भारतीयोंने इन म्लेच्छ शासकोंको राजा जो 'छत्रप' कहलाते थे, अपना राजा स्वीकार किया था---यही नहीं, उन्हें भारतीय मतोंमें अर्थात-अहत वर्द्धमानको नमस्कार ! श्रमणोंदीक्षित भी किया था। इन राजाओंके समयमें की श्राविका आरायगणिका लोणशोभिका की जैन धर्मके केन्द्रस्थान (१) मथुरा (२) उज्जैनी पुत्री नादाय गणिका वसुने अपनी माता, पुत्री, और (३) गिरि नगर थे । इन स्थानोंक श्रासपास पुत्र और अपने सर्व कुटुम्ब सहित अर्हतका एक जैन-धर्मका बहु प्रचार था। मथुरास मिले हुये शिला- मंदिर, एक आयाग मभा, ताल, और एक शिला लखों से स्पष्ट है कि उस समय वहाँके जैनसंघ निग्रंथ अहतोंके पवित्र स्थान पर बनवाये । में सब ही जातियोंके लोग---देशी एवं विदेशीराजा और रंक सम्मिलित थे । नागवंशी लोग इन दोनों शिलालेखों से स्पष्ट है कि आजसे जो मूल में मध्य ऐशियाके निवासी थे और वहाँ लगभग दो हजार वर्ष पहले जैनसंघमें 'नटी'और से भारतमें आये थे, मथुराके पुरातत्वमें जैन 'वेश्यायें' भी सम्मिलित होकर धर्माराधनकी गुरुओंके भक्त दर्शाये गये हैं। मथुराके पुरातत्वमें पूर्ण अधिकारी थीं । उनका जैनधर्म में गाढ़ श्रद्धान ऐसी बहुतसी मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं जिन्हें और अटूट भक्ति थी । वे एक भक्तवत्सल जैनी नीच कही जानेवाली जातिके लोगोंने निर्माण की भाँति जिनमंदिरादि बनवाती मिलती हैं । यही कराया था । नर्तकी शिवयशाने आयागपट जैनधर्मकी उदारता है। बनवाया था। जिसपर जैनस्तूप अंकित है और मथुराके जैन पुरातत्वकी दो जिन-मूर्तियों निम्नलिखित लेखभी है परके लग्वाम प्रकट है कि ईस्वी पूर्व सन ३ में
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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