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________________ Searereererep Reserrera? Pererererererererarererererererary लेखक: arerarerarera सामाजिक प्रगति Careererererani जैन समाज क्यों मिट रहा है? अयोध्याप्रसाद गोयलीय (क्रमागत ) feee &eererererere.3 ca नधर्मके मान्य ग्रन्थों में इतना स्पष्ट और जिसके कारण कोई भी बाहरी आदमी उसके "विशद विवेचन होनेपर भी उसके अनु- पाम तक आनेका साहस नहीं करता। यायी आज इतने संकीर्ण और अनुदार विचारके यह ठीक है कि अपराध करने पर दण्ड दिया क्यों हैं ? इसका एक कारण तो यह है कि, वर्त- जाय-इसमें किमीको विवाद नहीं; परन्तु दण्ड मानमें जैनधर्म के अनुयायी केवल वैश्य रह गए देनेकी प्रणाली अन्तर है । एक कहते हैं-अप हैं, और वैश्य ग्वभावतः कृपण तथा क़ीमती वस्तु- गधीको धर्मसे प्रथक कर दिया जाय, यही उसकी को प्रायः छपाकर रखनेवाले होते हैं। इसलिए सजा है, उसके संसर्गसे धर्म अपवित्र हो जायगा। प्राणोंसे भी अधिक मूल्यवान धर्मको खुदकं उप- दुसरे कहते हैं- जैसे भी बने धर्म-च्युतको धर्म योगमें लाना नथा दूसरोंको देना तो दूर, अपने में स्थिर करना चाहिए, जिससे वह पुनः सन्मार्ग बन्धोंसे भी छीन-झपट कर उमं तिजोरीमें बन्द पर लग जाय । ऐसा न करनेसे अनाचारियोंकी रखना चाहते हैं। उनका यह मोह और म्वभाव मंख्या बढ़ती चली जायगी और फिर धर्म-निष्ठोंउन्हें इतना विचारनेका श्रवमर ही नहीं देता कि का रहना दूभर हो जायगा। भला जिस प्रतिमा मरूपी सरोवर बन्द रग्वनेसे शुष्क और दुर्गन्धित का गन्धोदक लगानेसे अपवित्र शरीर पवित्र होते होजायगा। वैश्योंमें पूर्व जैनसंघकी बागडोर हैं, वही प्रतिमा अपवित्रोंके छूनेसे अपवित्र क्योंकर क्षत्रियोंके हाथमें थी। वे स्वभावत: दानी और हो सकती है? जिस अमृतमें मंजीवनी शक्ति उदार होते हैं। इसलिए उन्होंने जैनधर्म जितना व्याप्त है. वह रोगीके छूनेस विप कैसे हो सकता दुसरांको दिया उतना ही उसका विकास हुआ। है ? रोगीके लिए ही तो अमृतकी आवश्यकता है। भारतकं बाहर भी जैनधर्म स्खूब फला फूला। जैन- पारस पत्थर लोहेको सोना बना सकता है-लोहे धर्मको जबसे क्षत्रियोंका आश्रय हटकर वैश्योंका के म्पर्शसे स्वयं लोहा नहीं बनता। आश्रय मिला, तबसे वह क्षीरसागर न रहकर गाँव खेद है कि हम सब कुछ जानते हुए भी का पोखर-तालाब बन गया है। उसमें भी साम्प्र- अन्ध प्रणालीका अनुसरण कर रहे हैं। एक वे दायिक और पार्टियोंके भेद-उपभेद रूपी कीटा- भी जातियाँ हैं जो राजनैतिक और धार्मिक अधिपुत्राने मडाँद ( महादुर्गन्धि ) उत्पा करदी है, कार पानेके लिए हर प्रकारके प्रयत्न और हरेक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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