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....... अनेकान्त
[वैशाख, धीर-निर्वाण सं०२४६५
होना चाहिये, जो इस समय अनुपलब्ध है। 'जैनेन्द्र' के संग्रहीत है। इससे मालूम होता है कि पूज्यपाद नामके कर्म संस्करण अपनी जुदी जुदी वृत्तियों सहित प्रकाशित एक विद्वान् विक्रमकी तेरहवीं (१४वी १) शताब्दीमें हो चुके हैं।
भी हो मये है और लोग भूमवश उन्हींके वैद्यकमंयको .. .वैद्यक शास
जैनेन्द्रके कर्ताका ही बनाया हुआ समझकर उल्लेख विक्रमकी १५वीं शताब्दीके विद्वान् कवि मंगराजने कर दिया करते हैं।" कबडी माषामें 'खगेन्द्रमणिदर्पण' नामका एक चिकि- इस निर्णयमें प्रेमीजीका मुख्य हेतु 'मंगराजका साग्रन्थ लिखा है और उसमें पूज्यपादके वैद्यकग्रन्थका अपनेको पूज्यपादका शिष्य बतलाना' है जो ठीक नहीं भी आधाररूपसे उल्लेख किया है, जिससे मंगराजके है। क्योंकि प्रथम तो ग्रंथपरसे यह स्पष्ट नहीं कि समय तक उस वैद्यकग्रन्थके अस्तित्वका पता चलता है मंगराजने उसमें अपनेको किसी दूसरे पूज्यपादका शिष्य परन्तु सुहृदर पं. नाथरामजी प्रेमी उसे किसी दूसरे ही बतलाया है--वह तो पूज्यपादके विदेह-गमनकी घटना पूज्यपादका ग्रन्थ बतलाते हैं और इस नतीजे तक तकका उल्लेख करता है, जिसका सम्बन्ध किसी दूसरे पहुँचे हैं कि 'जैनेन्द्र' के कर्ता पूज्यपादने वैद्यकका कोई पूज्यपादके साथ नहीं बतलाया जाता है; साथही, अपने शास्त्र बनाया ही नहीं-यों ही उनके नाम मँदा जाता इष्ट पूज्यपाद मुनीन्द्रको जिनेन्द्रोक्त सम्पूर्ण सिद्धांतसागरहै, जैसा कि उनके “जैनेन्द्रव्याकरण और श्राचार्य- का पारगामी बतलाता है और अपनेको उनके चरणदेवनन्दी" नामक लेखके निम्न वाक्यसे प्रकट है:- कमलके गन्धगुणोंसे आनन्दित चित्त प्रकट करता है;
"इस (खगेन्द्रमणिदर्पण) में वह (मंगराज) जैसा कि उसके निम्न अन्तिम वाक्योंसे प्रकट है:अपने आपको पूज्यपादका शिष्य बतलाता है और यह 'इदु सकल-आदिम-जिनेन्द्रोक्तसिद्धान्तपयः भी लिखता है कि यह ग्रंथ पूज्यपादके वैद्यक-ग्रंथसे पयोधिपारग-श्रीपूज्यपादमुन्नीन्द्र-चारु--चरणारविन्द___ पूज्यपादकी कृतिरूपसे 'वैद्यसार' नामका जो गन्धगुणनंदितमानस श्रीमदखिलकलागमोत्तुंग मंगग्रंथ 'जैन-सिद्धान्तभास्कर' ( त्रैमासिक) में प्रकाशित विभुविरचितमप्प खगेन्द्रमणिदर्पणदोलु षोडशाधिहो रहा है वह इन श्री पज्यपादाचार्यकी रचना नहीं है। कारं समाप्तम् ।।"-(श्रारा०सि० भ० प्रति) हो सकता है कि यह मंगलाचरणादिविहीनग्रंथ पूज्यपादके इससे मंगराजका पूज्यपादके साथ साक्षात् गुरुकिसी ग्रन्थ पर ही कुछ सार लेकर लिखा गया हो; परंतु शिष्यका कोई सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता और न यही स्वयं पूज्यपाद कृत नहीं है । और यह बात ग्रन्थके मालूम होता है कि मंगराजके समय में कोई दूसरे साहित्य रचनाशैली और जगह जगह नुसखोंके अन्तमें पूज्यपाद' हुए हैं--यह तो अलंकृत भाषामें एक भक्तपज्यपादने भाषितः निर्मितः जैसे शब्दोंके प्रयोगसे भी का शिष्य-परम्परा के रूप में उल्लेख जान पड़ता है। जानी जाती है।
शिष्यपरम्पराके रूपमें ऐसे बहुतसे उल्लेख देखने में • देखो, 'जैनसाहित्यसंशोधक' भाग १, अङ्क २, पाते हैं। उदाहरणके तौर पर 'नीतिसार' के निम्न पु० ८३ और 'जैनहितैषी' भाग १५, अङ्क १-२, प्रशस्तिवाक्यको लीजिये, जिसमें प्रन्यकार इन्द्रनन्दीने
हजार वर्षसे भी अधिक पहलेके प्राचार्य कुन्दकुन्द