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________________ वर्ष २, किरण ७] भीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ स्वामीका अपनेको शिष्य (विनेय) सूचित किया है:-- थका स्पष्ट नाम भी दिया है और वह है 'शाला “–स श्रीमानिन्द्रनन्दी जगति विजयतो भरिभावानुभावी जो कि कर्ण, नेत्र, मासिका, मुख और विरोरोगको देवज्ञः कुन्दकुन्दप्रभुपदविनयः स्वागमाचारचंचुः।' चिकित्सासे सम्बंध रखता है। अतः प्रेमी गीने जो कल्पास ऐसे वाक्योंमें पदों अथवा चरणोंकी भक्ति श्रादिका की है वह निर्दोष मालूम नहीं होती। .... अर्थ शरीरके अङ्गरूप पैरोंकी पूजादिका नहीं, किन्तु यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता उनके पदोकी-वास्योंकी-सेवा-उपासनादिका होता हूँ कि चित्रकवि सोमने एक कल्याणकारक वैधकान्य है, जिससे ज्ञान विशेषकी प्राप्ति होती है। कमडी भासमें लिखा है, जोकि मद्य-मांस-मधुके व्यवहार दूसरे, यदि यह मान भी लिया जाय कि मंगराजके से वर्जित है और जिसमें अनेक स्थानोपर गय-पच-रूपसे साक्षात् गुरु दूसरे पूज्यपाद थे और उन्होंने वैवकका संस्कृत वाक्य भी उद्धृत किये गये हैं। यह अन्य पायकोई ग्रंथ भी बनाया है, तो भी उससे यह लाज़िमी पाद मुनिके 'कल्याणकारकबाहडसिद्धान्तक' नामक नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि उन्हींके उस ग्रन्थके अाधारपर रचा गया है। जैसाकि उसके "पज्य. वैद्यकग्रन्थके भ्रममें पड़कर लोग 'जैनेन्द्र' के कर्ता पज्य- पादमुनिगलं पेल्द कल्याणकारकयाडसिद्धांतकदिष्ट" पादको वैद्यकशास्त्रका कर्ता कहने लगे हैं। क्योंकि ऐमी विशेषण से प्रकट है। इससे पूज्यपादके एक दूसरे हालतमें वह भ्रम मंगराजके उत्तरवर्ती लेखकोंमें ही होना वैद्यक-ग्रन्थका नाम उपलब्ध होता है। मालूम नहीं सम्भव था-पर्ववर्ती में नहीं । परन्तु पूर्ववर्ती लेखकोंने भी चित्रकवि सोम कब हुए हैं। उनका यह ग्रन्थ प्राराके पूज्यपादके वैद्यकग्रन्थका उल्लेख तथा संकेत किया है जैनसिद्धात-भवनमें मौजूद है। संकेतके लिये तो शुभचन्द्राचार्यका उपयुक्त श्लोक ही इसके सिवाय, शिवमोग्गा जिलातर्गत 'नगर' पर्याप्त है, जिसके विषय में प्रेमी जीने भी अपने उक्त ताल्लुकके ४६ वे शिलालेख में, जो कि पद्मावती-मंदिरके लेखमें यह स्वीकार किया है कि "श्लोकके 'काय' शब्द- एक पत्थरपर खुदा हुआ है, पूज्यपाद-विषयक जो से भी यह बात ध्वनित होती है कि पूज्यपाद स्वामीका हकीकत दी है वह कुछ कम महत्वकी नहीं और कोई चिकित्साग्रंथ है।" वह चिकित्माग्रंथ मंगराजके इसलिये उसे भी यहां पर उद्धृत कर देना उचित जान साक्षात् गुरुकी कृति नहीं हो सकता; क्योंकि उसके पड़ता है। उसमें जैनेन्द्र-कर्ता पूज्यपाद-द्वारा वैद्यकशास्त्र' संकेत-कर्ता शुभचंद्राचार्य मंगराजके गुरु से कई शताब्दी के रचे जानेका बहुत ही स्पष्ट उल्लेख मिलता है ।यथाःपहले हुए हैं। रही पूर्ववर्ती उल्लेखकी बात, उसके 'न्यासं जैनेंद्रसमसकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूगोलिये उग्रादित्य श्राचार्य के 'कल्याणकारक' वैद्यकग्रंथका न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वाउदाहरण पर्याप्त है, जिसमें पूज्यपादके वैद्यकयका यस्तत्वार्थस्य टीको व्यरचयदिह तो मात्यसौ पज्यपाद 'पूज्यपादेन भाषितः' जैसे शब्दोंके द्वारा यहुत कुछ स्वामी भुपालवंद्यः स्वपरहितवचः पूर्णद्रग्बोषकृतः ॥.. उल्लेख किया गया है और एक स्थानपर तो अपने शब्दावतार भौर सर्वार्थसिदि . ग्रंथाधारको व्यक्त करते हुए 'शालाक्यं पूज्यपादप्रकटि- 'नगर ताल्लुकके उक्त शिलावास्यमें पूज्यपादके घर तमधिकं' इस वायके द्वारा पूज्यपादके एक चिकित्सा- प्रन्थोंका क्रमनिर्देशपूर्वक उल्लेख किया गया है, जिनमेंसे।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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