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________________ वर्ष २, किरण ] भीपूज्यपाद और उनकी रचनाएँ पूज्यपादके इस व्याकरणशास्त्रकी प्रशंसामें प्रथया में और अधिक क्या कहा जाय ? दूसरे वाक्पमें पादिइस व्याकरणको लेकर पूज्यपादकी प्रशंसामें विद्वानोंके राजसूरिने बतलाया है कि जिनके बारा--जिनके देरके देर वास्य पाये जाते हैं। नमूने के तौर पर यहाँ व्याकरणशास्त्रको लेकर--राम्द भले प्रकार सिद्ध होते उनमेंसे दो-चार वाक्य उद्धृत किये जाते हैं:- वे देवनंदी प्रचित्य महिमायुक्त देवी और अपना कवीना तीर्थरुदेवः कितरी तत्र वर्यते। हित चाहनेवालोंके द्वारा सदा वंदना किये जाने के विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥५२॥ योग्य है । तीसरे वास्यमें, शुभचंद्र भष्टारकने, पूज्यपाद. -आदिपुराणे, जिनसेनः। को पूज्यों के द्वारा भीपूज्यपाद तथा विस्तृत सद्गुणों के अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवंधो हितैषिणा। धारक प्रकट करते हुए उन्हें ब्याकरण-समुद्रको तिरशब्दाश्च येन सिद्ध्यन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः।।१८।। जानेवाले लिखा है और साथ ही यह प्रार्थना की है कि -पार्श्वनाथचरिते, वादिराजः । वे मुझे पवित्र करें । चौथेमें, मलपारी पप्रमभदेवने पूज्यपादः सदा पज्यपादः पज्यैः पुनातु माम्। पूज्यपादको 'शब्दसागरका चंद्रमा' बतलाते हुए उनकी व्याकरणार्णवो येन तीनों विस्तीर्णसद्गुणः॥ वंदना की है । पाँचवे में, पूज्यपादके लक्षण (व्याकरण) -पांडवपुराणे, शुभचन्द्रः। शास्त्रको अपूर्व रत्न बतलाया गया है । छठेमें, शब्दान्ध दं च वन्दे। पूज्यपादको नमस्कार करते हुए उनके लक्षण शास्त्र -नियमसारटीकायां, पद्मप्रभः। (जैनेन्द्र ) के विषयमें यह घोषणा की गई है कि जो प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । बात इस व्याकरणमें है वह तो दूसरे म्याक. द्विसंधानकवेः काव्यं रखत्रयमपश्चिमम् ।। रणोंमें पाई जाती है परन्तु जो इसमें नहीं है वह -नाममालाया, धनञ्जयः। अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती, और इस तरह नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् ।। आपके 'जैनेन्द्र' व्याकरणको सर्वाङ्गपूर्ण बतलाया गया यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत्कचित् ॥ है। अब रहा सातवाँ वास्य, उसमें श्रीशुभचन्द्राचार्यने -जैनेन्द्रप्रक्रियायां, गुणनन्दी। लिखा है कि जिनके वचन प्राणियोंके काय, पास्य अपाकुर्वन्ति यदाचः कायवाञ्चित्तसंभवम् । और मनः सम्बन्धी दोषोंको दूर कर देते हैं उन देवनन्दी कलंकमंगिना सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ को नमस्कार है। इसमें पूज्यपादके अनेक प्रन्योंका -शानार्णवे, शुभचन्द्रः। उल्लेख संनिहित है-वाग्दोषोंको दूर करनेवाला तो इनमेंसे प्रथमके दो वाक्योंमें पूज्यपादका 'देव' आपका वही प्रसिद्ध 'जैनेन्द्र' व्याकरण है, जिसे गिननामसे उल्लेख किया गया है, जो कि आपके 'देवनन्दी' सेनने भी 'विदुषां वाङ्मलध्वंसि' लिखा है, और चित्तनामका संक्षिप्त रूप है। पहले वाक्यमें श्रीजिनसेना- दोषोंको दूर करनेवाला आपका मुख्य प्रन्य "समाधितंत्र" चार्य लिखते हैं कि 'जिनका वाङमय-शन्द शास्त्ररूपी है, जिसे 'समाधिशतक' भी कहते है, और जिसका कुछ व्याकरण-तीर्थ-विद्वन्जनोंके वचनमलको नष्ट करने विशेष परिचय प्रस्तुत लेखमें आगे दिया जायगा । हा वाला है वे देवनंदी कवियोंके तीर्थकर है, उनके विषय- कायदोषको दूर करनेवाला मन्थ, वह कोई वैद्यकशास्त्र
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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