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अनेकान्त
[भाषाद, बीर-निर्वास सं० २४६५
होकर सिवनीके पं. सुमेरचन्द जी जैनदिवाकर जैन प्रवेशसे नष्ट नहीं हुई तो इन हरिजनोंके प्रवेशसे कैसे समाजको उक बिलका विरोध करने के लिये, और यदि नष्ट हो सकती है, जिन्हें मन्दिरकी पवित्रताको सुरक्षित गवर्नमेण्ट उसे पास करना ही चाहे तो जैनियोंको रखते हुए पवित्रवेषमें ही कानन द्वारा मन्दिर प्रवेशउससे पथक कर देनेका अनुरोध करनेके लिये प्रेरणा की इजाजत दी मानेको है?माशा है दिवाकरजी कर रहे हैं। इस विषय में 'जैनसमाज ध्यान दें' नामका आगमके. उन वाक्योंको पते सहित प्रकट करेंगे जिनकी आपका लेख, जो १५ जून सन् १६३६ के 'जैन सन्देश' श्राप दुहाई दे रहे हैं। उनके सामने आने पर इस में प्रकाशित हुआ है, इस समय मेरे सामने है। इस विषयमें विशेष विचार उपस्थित किया जायगा। लेखमें जैनममाजको विरोधकी प्ररेणा करते हुए आगम
४ वीर-शासनजयन्ती की दुहाई दीगई है। लिखा है- . .
गत किरणमें वीरशासन-जयन्तीकी सूचना दी गई "अस्पश्य लोगोंके धर्मसाधन के लिये मानस्तम्भ-दर्शन- थी और जिसके सम्बंधमें जनता तथा विद्वानोंसे अपने का श्रागममें विधान है, मन्दिरके भीतर प्रवेश करनेका कर्तव्य पालनका अनुरोध किया गया था, वह प्रथम अपने यहाँ प्रतिषध ह । अतएव एसा बिल अगर श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी मांगलिक तिथि (ता०२ जुलाई) काननका रूप हमारे प्रमादसे धारण कर लेगा, तो उससे अब बहत ही निकट आगई है-किरणके पहँचनेसे धार्मिक जीवनकी पवित्रताको बहुत क्षति पहुंचेगी।" एक दो दिन बाद ही वह पाठकोंके सामने उपस्थित हो
मालम नहीं कौनसे आगमका उक्त विधान है! जायगी. श्रतः कृतज्ञ जनताको उत्सवके रूपमें उसका और कौनसे पागम ग्रन्थमें अस्पृश्य वर्गको मन्दिरके उचित स्वागत करना चाहिये । करीब १०० विद्वानों भीतर प्रवेशका निषेध किया गया है! जिनेन्द्रभगवान्- तथा दसरे प्रतिष्ठित पुरुषोंको बीर-सेवामंदिरसे अलग के साक्षात् मंदिर (समवसरण) में तो पशु-पक्षी तक विज्ञप्तियाँ तथा पत्र भिजवाये गये हैं और उनसे वीरभी जाते हैं। फिर किसी वर्गके मनुष्योंके लिये उसका सेवा मंदिरमें पधारने, वीरशासनजयन्ती मनाने और प्रवेश द्वार-बन्द हो यह बात सिद्धान्तकी दृष्टिसे कुछ वीरशासन पर लेख लिखकर भेजनेकी विशेष प्रेरणा भी समझमें नहीं आती! श्रीजिनसेनाचार्य प्रणीत हरिवंश- की गई है। फल स्वरूप कड विद्वानोंकेश्राने प्रादिकी पुराण में सिद्धकूट जिनालयका जो वर्णन दिया है और स्वीकृतिके पत्र श्राने लगे हैं और लेख भी श्राने प्रारंभ उसमें मन्दिरके भीतर चाण्डाल जातिके विद्याधरोंको
होगये हैं । आशा है इस वर्षका यह उत्सव गतवर्षसे भी जिस रूपमें बैठा हुआ चित्रित किया है, और उनके
अधिक उत्साह और समारोहके साथ जगह जगह मनाया द्वारा जिन-पूजाका जैसा-कुछ उल्लेख किया है * उस
जायगा और इसके निमित्त वीर-शासन सम्बन्धी बहुतसा परसे तो कोई भी समझदार व्यक्ति यह नहीं कह सकता।
ठोस साहित्य तय्यार हो जायगा । जहाँ जहाँ यह उत्सव कि मंदिर-प्रवेश बिल-द्वारा अधिकार प्राप्त , आजकलके
मनाया जाय वहाँके भाइयोंसे निवेदन है कि वे उसकी हरिजनोंसे मन्दिरोंकी पवित्रता नष्ट हो जायगी अथवा
सूचना वीरसेवा-मंदिरको भी भेजनेकी कृपा करें। और धार्मिक जीवनकी पवित्रताको क्षति पहुंचेगी। वह जिन विदनोंने इस किरग्मक पहुँचने तक भी अपना लेख जब चमड़ेके वस्त्र धारण किये हुए और हड़ियोंके
परा न किया हो वे उसे शीघ्र पूरा करके उक्त तिथिके भाभषण पहने हुए चाण्डालोंके सिद्धकूट जिनालयमें
बाद भी भेज सकते हैं, जिससे वीरशासन सम्बन्धी ® देखो, २६ सर्गके श्लोक ०२ से २४ लेखोंके साथमें उसे उचित स्थान दिया जा सके।