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वीर शासन
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(ले०-५० हरिप्रमाद शर्मा 'अविकसित')
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(४)
जिसकी दया दृष्टिमे हिंसक जन्तु बन थ दया निधान, किया असंख्यां जीव धारियांका जिसनं जगके कल्याण । मृग, शावक औ शेर, अजा. जल एक घाटपर पीते थे, एक ठौर मिल मोद मनाते भेड़, भेड़िये. चीते थे। हिंसासी पिशाचिनीको द डाला जिसने निर्वासन । वन्दनीय उस वीर प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन॥
जिसकी आभा लवकर फूटी मरु-प्रदेशमं सरिता धार. तटपर बैठा देख रुका सागरका भी अति भीषण ज्वार । स्वास सुरभि पा वायु प्रसारित कर देता था भक्ति तरङ्ग. धनुष-वाण निज जिन्हें देखकर रख देता था दूर अनङ्ग।
खग-नृप-देवाधिप करते थे जिन चरणोंका अाराधन । वन्दनीय उम वीर-प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन॥
(२)
ऊंच-नीचका भेद मिटाकर बांधा समताका सम्बन्ध, दिव्य ज्योति लख ाजनकी होती थी, लजित शशिकी मस्कान. भरदी नर-रूपी पुष्पोंमें दया भावकी नूतन गन्ध । दर्शन पाकर प्राणी पीड़ा होजाती थी अन्तर्धान । राग-द्वेष दुर्भाव मिटाकर हृदय सुमन सब दिये खिला . धरा धारकर पद पद्मोको होजाती थीं जिनके धन्य. बिखरी मानवताकी मालाके मोती मब दिये मिला । रही जगमगा जगमें जगमग जिनकी धवल सुकीर्ति अनन्य। दिया अहिंसाकी देवीको अतिऊंचा पावन आसन । किन्नर और अप्सरा जिनपर बरसाते थे देव-सुमन । वन्दनीय उस वीर-प्रभुका धन्य-धन्य बह प्रिय शासन ॥ वन्दनीय उम वीर-प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन।।
(३)
जिनके चरणोपर इन्द्रादिक नाना रत्न चढ़ाते थे, ध्यान मग्न जिनके शरीरसे बन-पशु देह खुजाते थे। बाघ-निदाघ समयमें जिनकी छायाको अपनाते थे, नाग संड रख जिस मनिवरके चरणों में सोजाते थे।
खग करते थे निकट बैठकर णमोकारका उच्चारण। वन्दनीय उस वीर प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन ।।
खिल उठती थी उषा देखकर जिनका दिव्य अलौकिक नेज. प्रकृति बिछा देती थी नीचे हरी मखमली दूर्वा सेज । मेघ तान देते थे जिनके सिरपर शीतल छाया छत्र, दर्शन करने मानो प्रभुके होते थे नभपर एकत्र । प्रभु-तन-भाभा बिजली बनकर करती थीं नभमें गर्जन । वन्दनीय उस वीर-प्रभुका धन्य-धन्य वह प्रिय शासन ।।