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________________ १४ अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ इसका भी उसे ध्यान नहीं था। अचेतनावस्थामें लोग डरके मारे दूर हट गए । किसोको साहस ही वह देखरही थी कि कैसे वह ज़रा-सी देरमें न हुआ कि वहाँ पर ठहरकर अपने इष्ट-देवकी उस सधवा से विधवा बनगई। उसी अजगरने तो विष-धरसे रक्षा करता; लेकिन वर्द्धमान तनिक भी उसके पतिको राख कर दिया। बेचारे वे लोग भयभीत न हुए और शान्ति-पूर्वक ध्यानमें लगे आश्रम से दूर अपनी छोटी-सी कुटियामें आनन्द ही रहे। का जीवन व्यतीत कर रहे थे; लेकिन अभागेसे कुछ देरके बाद सर्प अपने बिलसे निकला, वह सुख न देखा गया। और अपनी बिवर पर एक आदमीको बैठा देखअसल बात यह थी कि उस तापसाश्रमके पास कर क्रोधसे लाल हो उठा । उसने कई बार अपनी एक सर्प इनदिनों आ बसा था। उसका विष इतना जीभ मुँहसे भीतर-बाहर की और विषभरी तीब्र था कि जिसकी ओर वह एकबार देख भी देता, आँखोंसे उस मूर्ति-वत् बैठे व्यक्ति की ओर देखा; वही जलकर राख होजाता । आश्रमके कई तपस्वी लेकिन उस असाधारण मानवका कुछ भी न उसके शिकार बन गए। जो बचे उन्होंने उचित बिगड़ा। समझा कि श्राश्रम छोड़दे और किसी दूसरे सर्पने देखा उसकी वह दृष्टि जिसके आगे स्थानपर जा बसें । वे आश्रम छोड़-छोड़कर जाने कभी कोई भस्म होनेसे नहीं बचा, उस आदमीपर लगे और उस रास्तेसे पथिकोंने भी आना-जाना अपना प्रभाव डालनेमें असमर्थ प्रमाणित हुई है तो छोड़ दिया। थोड़े दिनोंमें ही वहाँपर भयंकरता उसका क्रोध और बढ़गया। आँखोंसे चिनगारियाँ व्यापने लगी। बरसने लगी और उसने कई बार अपना फन संध्या होने को थी। वर्द्धमान बनमें चक्कर धरतीमें मारा, जैसे उसके भीतर भरा गुस्सा उससे लगाते लगाते उसी मार्गपर आगए जिसपर कुछ सहा नहीं जारहा है। आगे चलकर चंडकोसिया (सर्पका नाम था) की वह आगे बढ़ा और जोरसे उसने वर्द्धमानके बिवर थी । लोगोंने उन्हें उस सांपका विस्तृत पैर पर अपना मुँह मार दिया। क्षणभर रुका, हाल सुनाया और आग्रह किया कि वह उस मानो देखना चाहता था कि उसका शिकार अब मार्गपर आगे न बढ़े; लेकिन वर्द्धमानने एक न , __ भस्म हुआ, अब भस्म हुआ। लेकिन वर्द्धमान सुनी। वह उसी मार्गपर चलते गए, चलते गए। ज्यों के त्यों ध्यानमें लगे रहे जैसे सर्पकी शक्ति उन्होंने उस सर्पको बोध देनेका विचार करलिया और कोपका उन्हें लेशमात्र भी बोध नहीं है । था। इसीसे वह अपने विचारपर दृढ़ रहे, विचलित न हुए। सर्प अपनी असमर्थतापर खीझ उठा । उसने झुंझलाकर कई बार वर्द्धमानके पैर पर मुँह मारे; साँपकी बिवर आगई और वर्द्धमान उसीके लेकिन जरा-सा रुधिर निकालनेके अतिरिक्त वह ऊपर ध्यानावस्थ होंगए। उन्हें कोई कष्ट न पहुंचा सका ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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