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________________ ५४२ अनेकान्त [प्रथम श्रावणा,वीर-निर्वाण सं०२४६५ नं० १६० दी है, और इसतरह उक्त पंक्तियों के द्वारा जो २२८, २२६ (२२६, २२७) दोनी गाथाओंकी थी! पूर्वोद्दिष्ट-पूर्ववर्ती नवपदार्थाधिकारमें 'सम्मत्त श्रादि दो साथमें "त्यक्तं येन फलं-" नामका एक कलशपद्य भी दे गाथाओं के द्वारा कहे हुए-व्यवहार मोक्षमार्गकी पर्याय दिया है और दसरे "सम्यगष्टय एक-" नामके कलशदृष्टिको स्पष्ट करते हुए उसे सर्वथा निषिद्ध नहीं ठहराया पद्यको दूसरी गाथा नं. २२६ (२२७) की टीकारूपमें है। बल्कि निश्चय-व्यवहारनयमें साध्य-साधन भावको रख दिया है!! इस विडम्बनासे ग्रन्थकारकी महामूर्खता व्यक्त करते हुएदोनों नयोंके प्राश्रित पारमेश्वरी तीर्थ- पाई जाती है, और इस कहने में जरा भी संकोच नहीं प्रवर्तनाका होना स्थिर किया है। इससे उक्त पंक्तियाँ होता कि वह कोई पागल-सा सनकी मनुष्य था, उसे दूसरी माथाके साथ सम्बन्ध रखती हैं और वहीं पर सु- अपने घर की कुछ भी समझ-बुझ नहीं थी और न इस संगत है। सम्यक्त्वप्रकाशके विधाताने “यत्त' शब्दको बातका ही पता था कि ग्रन्थरचना किसे कहते हैं। तो उक्त गाथा १५६ (१६७) की टीकाके अन्तमें रहने इस तरह सम्यक्त्वप्रकाश ग्रंथ एक बहुत ही अाधुदिया है, जो उक्त पंक्तियोंके बिना वहाँ लँडरासा जान निक तथा अप्रामाणिक ग्रंथ है। उसमें पात्रकेसरी तथा पड़ता है ! और उन पंक्तियोंको यों ही बीचमें घुसेड़ी विद्यानन्दको जो एक व्यक्ति प्रकट किया गया है वह यों हुई अपनी उक्त गाथा नं. १६८ (१०६) की टीकाके ही सुना-सुनाया अथवा किसी दन्तकथा के आधार पर रूपमें धर दिया है !! ऐसा करते हुए उसे यह समझ ही अवलम्बित है। और इसलिये उसे रंचमात्र भी कोई नहीं पड़ा कि इसमें आए हए "पर्वमूहिट" पदोंका महत्व नहीं दिया जासकता और न किसी प्रमाणमें पेश सम्बन्ध. पहलेके.कौनसे कथनके साथ लगाया जायगा!! ही किया जासकता है। खेद है कि डाक्टर के० बी० और न यह ही जान पड़ा कि इन पंक्तियोंका इस गाथा- पाठकने बिना जाँच-पड़तालके ही ऐसे आधुनिक, अप्राकी टीका तथा विषयके साथ क्या वास्ता है !!! माणिक तथा नगण्य ग्रंथको प्रमाणमें पेश करके लोकमें इस तरह यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकारको उद्धृत करने- भारी भ्रमका सर्जन किया है !! यह उनकी उस भारी श्रकी भी कोई अच्छी तमीज नहीं थी और वह विषयको सावधानीका ज्वलन्त दृष्टान्त है, जो उनके पदको शोभा ठीक नहीं समझता था। नहीं देती । वास्तवमें पाठकमहाशयके जिस एक भ्रमने (१) पंचास्तिकायकी उक्त गाथाओं आदिको बहत्तसे भ्रमोंको जन्म दिया-बहुतोंको, मलके चक्कर में उद्धृत करनेके बाद “इति पंचास्तिकायेषु" (!) यह डाला, जो उनकी अनेक मुलोंका आधार-स्तम्भ है और . समाप्तिसूचक वाक्य देकर ग्रन्थमें “अथ समयसारे पदुक्तं जिसने उनके अकलंकादि-विषयक दूसरे भी कितने ही तक्विल्पते" इस प्रस्तावना अथवा प्रतिज्ञा-वाक्यके निर्णयोंको सदोष बनाया है वह उनका स्वामी पात्रकेसरी साथ समयसारकी ११ गाथाएँ नं. २२८ से २३८ तक, और विद्यानन्दको, बिना किमी गहरे अनुसन्धानके, एक संस्कृतचाया और अमृतचन्द्राचार्यकी श्रात्मख्याति मान लेना है। टीकाके साथ, उद्धृत की गई है। ये गाथाएँ वे ही हैं. मुझे यह देखकर दुःख होता है कि श्राज डाक्टर जो रायचन्द्रजैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित समयसारमें साहब इस संसारमें मौजद नहीं है। यदि होते तो वे ज़रूर क्रमशः नं० २२६ से २३६ तक पाई जाती हैं। श्रात्म- अपने भ्रमका संशोधन कर डालते और अपने निर्णयको ख्यातिमें २२४से २२७ तक चार गाथाओंकी टीका एक बदल देते । मैंने अपने पर्वलेखकी कापी उनके पास साथ दी है और उसके बाद कलशरूपसे दो पद्य दिये भिजवादी थी। संभवतः वह उन्हें उनकी अस्वस्थावस्थाहै। सम्यक्त्वप्रकाशके लेखकने इनमेंसे प्रथम दो गाथा- में मिली थी और इसीसे उन्हें उस पर अपने विचार श्रोको तो. उद्धृत ही नहीं किया । दूसरी दो गाथाओंको प्रकट करनेका अवसर नहीं मिल सका था। अलग अलग उद्धृत किया है, और . ऐसा करते हुए वीरसेवामन्दिर, सरसावा, . गाथा नं.२२८ (२२६) के नीचे वह सब टीका दे दी हैं ता० १७-७-१६३६
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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