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अनेकान्त
[प्रथम श्रावण, वीर-निर्वाण सं०२४६५
इस मातृ पितृ विहीन बालकने भाखिर उसका क्या एक दिन दिनेशको स्कूलसे मानेमें देर हो गई। बिगाड़ा है ? वह कारण समझनेको बहुत कोशिश विममा जल उठी, उसने बड़े तीखे स्वरमें कहा-"अब करती पर समझ न पाती ? ज्योंही दिनेश उसके सामने तक तुम यहाँ रहगये थे, तुम्हें खज्जा नहीं भाती भावारा धाता, विमला अपना मुँह फेर लेती ! दिनेशके वह लड़कोंके साथ खेलनेमें।" विनेश चुप था, वह देरीका सारे स्वान, जो वह देखा करता था, नष्ट होते चले कारण न बता सका। ये शब्द उसके दिल में वापसे जा रहे थे । वह सोचता-उसने तो कभी ऐसा कोई लगे थे, एक असा टीस पैदा हो गई थी। वह सीधा काम नहीं किया जिससे भामोको नाराज होनेका मौका अपने कमरे में गया और किवार बन्द कर लेट गया। मिले, फिर वह मुझसे इतनी विरक्त क्यों रहती है ? शाम हो गई, दिनेश न निकला तो विमलाने नौकरको क्या भाभी भैय्याका मुझपर इतना प्रेम देखकर जलती भेजा, नौकरने छुना तो देखा हाथ जल रहा था, उसने हैं ? उसका छोटासा मम पछता-क्या भाभी भी मुझे फौरन विनोदसे कहा। विनोद आये, दिनेशकी दशा भैय्याकी तरह प्रेम नहीं कर सकती ? पर उसे कोई देखी तो हृदय पर धका-सा लगा ! फौरन डाक्टरको जवाब न मिलता!
बुलवाया। डाक्टरने कहा “टाईफायड है" और भावदिनेशको पहलेवाली वह चपलता वह बुद्धि मिट श्यक बात समझाकर चला गया । विनोद दिनेशके चुकी थी। मुख पर सदा उदासीबाई रहती। स्कूलके सिर पर बर्फ़की पट्टी रखने लगे। सारी रात उन्होंने अध्यापक, सब बदके उसकी दशा पर भारचर्य करते बैठे बैठे काट दी। थे। उस फल की सारी साखी, सारी ताज़गी बाचुकी भोर हो रहा था, दिनेश की दशा में कोई तन्दोली थी। उसकी सारी पंखुडियाँ झड़ चुकी थीं । जिस फूल न थी, वह बेसुध पड़ा था। विनोदने विमलाकी भोर पर कमी सदा वसन्तकी बहार छाई रहती थी, अब देखा, उनके दिखमें एक हलचल मची थी। उन्होंने पतकाकी बेदर्दी दिखाई देती थी। विनोद भी यह सब कहा-"विमला मानती हो, दिनेशको यदि कुछ हो देख रहे थे । रस कूलका ना होना बह देखते थे, गया तो इसका पाप किसकी गर्दन पर होगा, तुम्हारी
और अपनी भूतपर सिर धुनते थे। उन्होंने विमलाको गर्दन पर, तुम्हें कभी शांति मिलेगी। मैं तुम्हें बाबा बईपार समझाना पर असर नहुषा,उने ऐसा लगता था दिनेसकी शुशीके बिचे, पर मैंने गलती की, मैं नहीं मानों पिताजीकी मात्मा उ भिकार रही है। जानता था कि इसका पन्त यह होगा । बानते हुए भी सोरोसे जाग पते और देखते उनका फूल उदा ना मैंने यह सब होने दिवा, पिताजीकी प्रास्मा मुझे सदा रहा है, वह दिनेशको अपने सीनेसे चिपटा बेते और पिरती रहेगी, मैं ही दोगी है, मेरे पापा फसा वही बाबदाते-"मेरे दिनेश । मेरे फूल ! मुके बोदकर तू होना चाहिये था!" विमखाका व कांप उम, उसकी हो जाता है, या तू भी उसी बोको बागेवाला बालों में बांस बलक पाये, मसको पता ना कि ?" उनकीबो पर सब पर पुका.मा, अज्ञात बात यहाँ तक बागी, बदि यह सम्भव हो सकता माशंका-सी सदाउराती।... तोह सन्धिकारने के लिये मारी। विकासव
दावा-माँ! मैं तुम्हारे पास पाता हूँ, मैं जाता है।