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________________ २१८ अनेकान्त शांतरक्षितने वैशेपिक-सम्मत पटपदार्थोंकी परीक्षा को है। उसमें प्रशस्तपादके साथ ही साथ शंकरस्वामी नामक नैयायिकका मत भी वे पूर्वपक्षरूप से उपस्थित करते हैं । परंतु जब हम ध्यानसे देखते हैं तो उनके पूर्वपक्ष में प्रशस्तपादव्योमवतीके शब्द स्पष्टतया अपनी छाप मारते हुए नज़र आते हैं। (तुलना - तत्वसंग्रह पृ० २०६ तथा व्योमवती पृ० ३४३ । ) तत्वसंग्रहकी पंजि का ( पृ० २०६ ) में व्योमवती ( पृ०१२६ ) के स्वकारासमवाय तथा सत्ताममत्रायरूप उत्पत्ति के लक्षणका उल्लेख है। शान्तरक्षित तथा उनके शिव्य कमलशीलका समय ई०की आठवीं शताब्दि का पूर्वार्द्ध है । (देखा, तपकी भूमिका पृ० xevi) विद्यानन्द आचार्य ने अपनी श्रमपरीक्षा ( पृ० २६) में व्योमवती टीका ( पृ० १०७ में समवायके लक्षणकी समस्तपदकृत्य उद्धृत की है। 'द्रव्यवोपलक्षिन समवाय द्रव्यका लक्षण है' व्योमवती ( पृ० १४६ ) के इस मन्तव्यकी समालोचना भी आप्त परीक्षा ( पृ० ६ ) में की गई है [पौष, वीर- निर्वाण सं० २४६० श्रप्रमाणमाननेका समर्थन किया है, साथही पृ० ६५ पर व्योमवती ( पृ० ५५६ ) के फलविशेषणपक्षको स्वीकारकर कारकसामग्रीको प्रमाण मानने के सिद्धान्तका अनुसरण किया है। जयन्तका समय हम अपने पहले लेख में ईसाकी नत्रमी शताब्दिका प्रथमपाद सिद्ध कर आए हैं। वाचस्पति मिश्र अपनी तात्पर्यटीका के पृ० १०८ पर प्रत्यक्षलक्षगणसूत्र में 'यतः' पदका अध्याहार करते हैं तथा पृ० १०२ पर लिंगपरामर्श ज्ञानको उपादान बुद्धि कहते हैं। व्योमवतीटीकामें पृ० ५५६ पर यतः' पदका प्रयोग प्रत्यक्षलक्षण में किया है तथा पृ० ५६१ पर लिंगपरामर्श ज्ञानको ही उपादानबुद्धि कहा है। वाचस्पति मिश्रका सय ८४१ A.D. है । जयन्तकी न्यायमंजरी ( पृ० २३ ) में व्योम वती ( पृ० ६२५ ) के अनर्थजन्यान स्मृति-सिद्धान्तको प्रभाचन्द्र आचार्यने मोक्षनिरूपण ( प्रमेयक मलमार्तणु प्र० श्रात्मस्वरूपनिरूपण ( न्यायकुमुद चन्द्र पृ० ३४६, प्रमेयक मलमा० पृ० २६, समवायलक्षण ( न्यायकुमु० पृ० २६५, प्रमेयकमलमा० पृ० १८२ आदि में व्योमवती को लिया है ( देखो व्योमवती पृ० २० से, ३६३, १०७ ) | स्वसंवेदन सिद्धिमं व्योमवती ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानबादका खंडन भी किया है। श्रीधर तथा उदयनाचार्यने अपनी कन्दली ( पृ० ४ ) तथा किरणावली में व्योमवती ( पृ० २० क) के 'नवानामात्म विशेषगुणानां सन्तानोऽ त्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् यथाप्रदीपसन्तानः । इस अनुमान को 'तार्किकाः' तथा 'आचार्याः' शब्द उद्धृत किया है। कन्दली ( पृ०२०) व्यक्ती ( पृ० १४६ ) के 'द्रव्यत्वोपलक्षितः समवायः द्रव्यत्वेन योग:' इस मतकी आलोचना की गई है। इसी तरह कन्दली ( पृ० १८ ) में व्योमवती ( पृ० १२६ ) के 'श्रनित्यत्वं तु प्रागभाव प्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुसत्ता ।' इस अनित्यत्व के लक्षणका स्वण्डन किया है । कन्दली ( पृ० २००) व्योमवती ( पृ० ५६३ ) के 'अनुमान - लक्षणमें विद्याके सामान्यलक्षणकी अनुवृत्ति करके संशयादिका व्यवच्छेद करना तथा स्मरण के व्यवच्छेद
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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