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________________ भुतानका प्राधार - में विद्यमान पांचों इन्द्रियोंको कारणरूप रोनेके कारण वह नहीं माना जा सकता।. .... कार्यमें उपचार कर सकते है। प्राचार्य पम्पपादने साबमें यह भी स्मरताना साहिये कि यही • "लघुपयोगी मावेन्द्रिवं" सूत्रकी प्याख्या करते हुए, और प्रसंशीको कल्पना शरीरसहित सारी प्राणियों की शंका की है कि भावेन्द्रियमें इन्द्रियत्वकी कल्पना येते की अपेक्षा है। शरीरसे मेरा वापर्ववारिक गाय ? इसका उत्तर दियाई-कारलपर्मस्य कार्य माहारक शरीर है । तथा प्राशीली कल्पक दर्शनात् यथा पटाकारपरिणतं विज्ञानं घट इति"। औदारिक शरीरमें ही होती है। जिस अजरामें .कीर इस दृष्टांतके अनुसार विग्रहगतिमें पंचेन्द्रियत्सकी कल्पना ही नहीं होते, उस अवस्थामें संशी, असंहीकी कहानही मिथ्या नहीं कही जा सकती। यह नियम मनके विषयमें अर्थ है। इसलिये विग्रहगतिमें इस विसरको रोगना घटित नहीं किया जा सकता। उचित नहीं है।.बदि किसी तरह विग्रहगति में कहना दूसरी बात यह भी है कि इन्द्रियके दो भेद किये है, की भी जाय तो उस नियमको सीन्द्रिवादि जीवोंमें परित द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । इन दोनों में किसी एकके करना सर्वथा अनुचित है। होने पर भी, उस जीवको उस इन्द्रिय-वाला कह सकते शंका-प्रसंशोके भावमन यदि लम्भिकपमें माना है। परन्तु यह बात मनके विषयमें घटित नहीं हो सकती। जायगा तो 'प्रसंशिस्व' को जीवके साधारणमात्रों से संशीके लिये द्रव्यमन और उपयोगरूप भावमन (लब्धि- कोई-सा भी भाव नहीं मानना होगा। जबकि भाकलंकने रूप भावमन तो उपयोगके साथ होता ही है ) दोनोंकी इसे प्रौदायिक भावोंमें गर्भित किया है। संबिलको पावश्यकता होती है। तथा दोनोके प्रभावसे प्रसंगी प्रौदायिक मानने के लिये नोइन्द्रि यावरणके सर्वशतिकहलाता है । जैसा कि द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेवने स्पद कोका उदय मानना अनिवार्य है, जबकि बाधिरूप लिखा है-“एकेन्द्रियास्तेपि यदष्टपत्रपनाकारं द्रव्य- भावमनमें नोइन्द्रियावरणके सर्वपातिस्पर्धकोका उदयामनस्तदाधारण शिक्षालापोपदेशादिप्राहकं भावमन- भावीक्षय विद्यमान है। इसलिये असंशित्व भाव या तो ति तदुभयाभावादसंझिन एव" । अर्थात्-अदल बौदयिक नहीं होना चाहिये अथवा भावमनको अवंतीके पनके आकार द्रव्यमन और उसके आधार शिक्षालाप लन्धिरूपमें नहीं रहना चाहिये, परन्तु भाकलंक असंउपदेश आदि ग्रहण करने वाला भावमन होता है। शित्वको प्रौदयिक भावोंमें गिनाते हैं। इससे स्पोकि इन दोनोंका जिनके प्रभाव होता है, ऐसे एकेन्द्रियादिक भट्टाकलंक भावमनको प्रसंशीके कैसे भी स्वीकार नहीं जीव असंशी होते हैं। इतना स्मरण रखना चाहिये कि करते । प्राचार्य माधवचन्द्र विद्यने जीव-कापड बड़ी यहाँ जो भावमनका निषेध किया है, उसका तात्पर्य का पृष्ट ३५ पर भी इसी बातका समर्थन किया है। उपयोगरूप भावमनसे ही है, लधिरूप भावमनसे नहीं। समाधान-महाकलंकने 'नोइन्द्रियावरणस्य सर्वउपयोगका सामान्य लक्षण-अर्थग्रहणन्यापार' किया पातिस्पर्धकस्योदयात् हिताहितपरीक्षा प्रत्यसामर्थहै, शिक्षा उपदेश आदि ही मनका व्यापार है। मसंजित्वमौदयिकम्" ऐसा कहा है। यहाँ बहिसका लब्धिका काम शिक्षा उपदेयादि ग्रहण करना नहीं। अर्थ हिताहितमासिके प्रति असमर्थता बननाईपा • इसलिये यहाँ लग्धिरूप भावमनके प्रभावको किसी उसका कारण नोइन्द्रियावरबाके सर्वचाविसकोका
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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