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________________ २९. अनेकान्त [वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४३५ उदय बताया है। इसीको यदि दूसरे शब्दोंमें कहा जाय प्राशोंका वर्णन करते हुए लिखा है-"मनोबलपाब: को यों कह सकते हैं-हिताहितमाप्तिमें सामर्थ्य रखने पर्याससंक्षिपंचेन्द्रियेष्वेव संभवति तन्निबन्धन वीर्यान्तवाले नोइन्द्रियावरणके सर्वजातिस्पर्षकोका उदय होनेसे रायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमस्पान्यत्राभावात्" अर्थात् असंशित्वको प्रोदयिक कहा है। यहां 'हिताहित- मनोबल प्रासका अस्तिस्व पर्याप्त संजी पंचेन्द्रियके ही "परीक्षा" पदसे ही भष्टाकलंकका अमिपाय साफ मालम संभव हो सकता है क्योंकि इसप्रकारका नोइंद्रियावरणका होता है कि नोइन्द्रिया वरणका और भी कुछ अन्य क्षयोपशम पर्याप्त संशी पंचेन्द्रियको छोड़कर दूसरी जगह कार्य है, जिसकी यहाँ अपेक्षा नहीं है । अन्यथा संभव नहीं। यहां तन्निबन्धन' पदसे स्पष्ट है कि किसी "नोइन्द्रियावरणस्य सर्वघातिस्पर्द्धकस्योदयात्" सिर्फ खास नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमकी यहाँ विवक्षा है। • इवमा ही पद रखते “हिताहितपरीक्षा प्रत्यसामर्थ्य" इसका यह अर्थ कभी भी नहीं किया जा सकता कि ..पदकी कोई आवश्यकता नहीं थी। इस कथनसे स्पष्ट है संशी पंचेन्द्रियको छोड़कर नोइन्द्रियावरणका क्षयोपशम कि हिताहितपरीक्षा करने वाले उपयोगरूप भावमनका दूसरी जगह नहीं होता । अन्यथा, यहाँ 'तन्निबन्ध पद ही यहाँ कथन है, लन्धिरूप भावमनका नहीं । यदि नडालकर 'वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपस्यान्यत्रानोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमका कार्य सिर्फ हिताहित- भावात्' इतना ही पद डालना चाहिये था । इस कथनसे परीक्षाकी सामर्थ्य ही हो तो फिर 'अर्थग्रहणरूप शक्ति' प्राचार्यका अाशय लब्धिरूप भावमनका कारण नोकिससे होगी १ इसके लिये क्या कारण माना जायगा? इन्द्रियावरणसे नहीं है । इसलिये श्राचार्य माधवचन्द्र नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे दोनों लब्धि और उपयोग त्रैविद्यके मतसे भी असंज्ञीके भावमन माननेमें कोई .. रूप भावमन होते हैं । दोनोंका कारण एक ही है। बाधा नहीं पाती। " कारण एक होने पर भी सम्पर्ण नोइन्द्रियावरणके शंका--अन्य लब्धीन्द्रियोंके होने पर जब कि द्रव्ये उदयकी विवक्षा नहीं मानी जा सकती। जिस प्रकार न्द्रियोंका बनना अनिवार्य है, तब मनोलन्धिके होने पर चाक्षुष मतिशानावरणके उदयका अर्थ सम्पर्ण मति- द्रव्यमनका बनना अनिवार्य होना ही चाहिये । इसी अनिज्ञानावरणका उदय नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार वार्यताको लक्ष्य में रखकर भगवान् पूज्यपपादने लन्धिका - हिताहितपरीक्षा करने वाले नोइद्रियावरणके उदयसे लक्षण 'क्षयोपशविशेष' ही नहीं किया, किन्तु “यत्सलम्भिरूप नोइन्द्रियावरणका उदय कभी नहीं लिया जा निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृतिः प्रति व्याप्रियते" सकता । इसलिये असंज्ञीके लब्धिरूप भावमन रहते हुए अर्थात् जिसके रहनेसे अात्मा द्रव्येन्द्रियकी रचनामें भी नोइन्द्रियावरणके उदयसे असंशित्वको प्रौदयिक लग जाय, इतना और जोड़ दिया है। इसलिये केवल भावमें गर्भित कर सकते है। इस प्रकार असंजीके भावननका अस्तित्व कैसे रह सकता है। सर्वभाविपद्धोका उदयाभावी क्षय और उदय दोनों समाधान-उमास्वामीने संसारी प्राणियोंके दो भेद समय हो सकते है। इस प्रकार भाकलंकके मतसे "समनकामनस्काः " इस सूत्र द्वारा किये हैं। इस सूत्र। प्रशीके भाषमन माननेमें कोई बाधा नहीं पाती। की व्याख्यामें प्राचार्य पूज्यपादने “पुद्गलविपाकि.... प्राचार्य माधषचन्द्र विद्यदेक्ने प्राणियों के अनुसार कर्मोदयापेतं द्रव्यमनः" तथा "वीर्यान्तरायनो.
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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