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________________ वर्ष २, किरण ७] प्रकृतिका संदेश इन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षया श्रात्मनो विशुद्धिर्भावमन : ” इस प्रकार लक्षण किया है । यदि श्राचार्यको भावेन्द्रियकी तरह भावमनको भी द्रव्यमनकी रचना में अनिवार्य कारण बतलाना होता तो श्रवश्य* उसका खुलासा करते, जैसा कि "लब्ध्युपयोगी” सूत्रकी व्याख्या में किया है। यदि यह कहा जाय कि दो जगह उसी बातको लिखने से क्या फायदा ? भावेन्द्रियके किने गयै लक्षणोंको यहाँ भी घटित कर सकते हैं। परंतु यह कहना भी ठीक न होगा; क्योंकि रचना - सामान्य दोनों जगह मनमें भी और इन्द्रियों में भी। ऐसी अवस्थामें किसी खास कारणको पहिले न कहकर पश्चात् कहने में कोई खास हेतु नहीं मालूम होता । तथा "समनस्का मनस्काः” सूत्रमें द्रव्यमन और भावमनके लक्षण पृथक् लिखने की भी श्रावश्यकता नहीं थी । द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके लक्षणोंसे ही कार्य चल सकता था। इससे मालूम होता है कि आचार्य द्रव्यमन और भावमनके लक्षणको द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके लक्षणोंसे पृथक् रखना चाहते थे । RE? सूत्रकी व्याख्या के लिये पृथक् लक्ष्य यदि मान भी लिया जाय तब भी "संसारिणखस्थावराः” सूत्रके पहिले "समनस्काम नस्काः " सूत्र देने की कोई आवश्य"कता नहीं थी । इन्द्रियोंके भेद और लक्षण करने वाले सूत्रोंके बाद इस सूत्रको दे सकते थे, वहाँ इस सूत्रका स्थान और भी संगत होता । तथा "संसारिणस्रस्थावरा" के स्थान पर सिर्फ "स्थावराः" इतन सूत्र से ही कार्य चल जाता। एक अक्षरकी बचतको पुत्रोत्पत्ति सदृश लाभ समझनेवाले सूत्रकार चार मह की बचतसे क्यों न लाभ उठाते ! परन्तु प्राचार्यको दोनों प्रकरण अलग अलग रखना इष्ट था, ऐसा ज्ञात होता है। इसलिये इन्द्रियोंमें किंगे लक्षणों को 'मन' के किये गये लक्षणोंमें भी स्वीकार कर लिया जाय यह नहीं माना जा सकता । इन प्रमाणोंके द्वारा यह सिद्ध हो जाता है कि लब्धिरूप भावमन सभी सँसारी प्राणियोंके होता है । इसलिये श्रुतज्ञान सभी संसारी प्राणियोंके होता हैं; इसमें बाधा नहीं आती । प्रकृतिका संदेश पराधियोंको दण्ड देनेमें प्रकृति जरा भी संकोच नहीं करती। प्रकृति उच्च और गम्भीर स्वरके साथ चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कि "वह जाति - जिसके कि शासक विलासितामें इवें हुए हैं, कामोन्मादमें सराबोर हैं, इन्द्रिय-परतामें तरवतर है, दुर्बलों, दरिद्रों और अनाथोंसे घूया करते हैंजीवित नहीं रह सकती । कमज़ोर जातियों पर दाँत लगाये, टकटकी बान्धे, मुँह फाड़कर बगुलोंके समान उन्हें उदरस्थ करनेकी कामना रखने वाली बलवती जातियाँ जीती न रहेंगी। जो जाति केवल बल और तलवार के ही साम्राज्यको मानती है वह तलवारसे ही मरेगी। न्याय, धर्म और सदाचारके अतिरिक्त में किसी भी देश या जातिकी परवाह नहीं करती। ऐ संसारकी वर्तमान जातियो, यदि तुम मुझे ध्यानमें न रक्खोगी तो, बाबिलौन, यूनान और रोमकी तरह तुम भी सदाके लिये अन्तर्हित हो जाओगी! मैं न्यायी धार्मिक और पुण्यात्मा राष्ट्र चाहती हूँ ।। मुझे सीधे सादे स्वभावके, स्वच्छ हृदयके, निर्विकार दिलके तथा जवानके सच्चे मनुष्य प्रिय है। मैं ऐसे लोगोंसे प्यार करती हूँ जिन्हें सत्य जीवनसे भी प्यारा है। मैं इतना ही चाहती हूँ। ऐ मनुष्यकी सन्तानो, क्या तुममें मुझे तृप्त करनेकी शक्ति है ! यदि तुम मुझे सन्तुष्ट कर सकोगे, तो मैं तुम्हें सदाके लिये अजर-कामर और अजेय कर दूंगी; जब तक सूर्य में ताप, चन्द्रमामें ठंडक, नममें नक्षत्र और शाकाथमें नील वर्ण है— नहीं नहीं जब तक कालका सोत बहता है, तब तक मैं तुम्हारी यशः कीर्ति और सुख्यातिकी दुन्दभिः बजाती रहूँगी ।" — नीति-विज्ञान, १० १३१।"
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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