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________________ वर्ष २ किरण ४] प्राचार्य हेमचन्द्र २४७ संस्कृत-भागके प्रकरणोंका क्रम इस प्रकार है :-संज्ञाः है कि यह तत्कालीन उपलब्ध सब व्याकरणोंका स्वर-संधि, व्यंजन संधि, नाम, कारक, पत्वणत्व, स्त्री- नवनीत है । आचार्य हेमचन्द्रकी प्रकर्ष प्रतिभाका प्रत्यय, समास, आख्यात ( क्रिया ) कृदन्त, तद्धित और प्रदर्शन इसमें पद-पद पर होता है ।। प्राकृत प्रक्रिया । इस पर स्वयं प्राचार्य श्री ने दो वृत्तियां इसका आठवां अध्याय सम्पूर्ण भारतीय प्राचीन लिखी हैं । वृहत्वृत्ति १८ हज़ार श्लोक प्रमाण है और भाषाओंके व्याकरणों में अपना विशेष स्थान रखता है। छोटी ६ हज़ार श्लोक प्रमाण है। इनमें सब संस्कृत- संस्कृत व्याकरण के साथ प्राकृत-व्याकरणको भी संयोजित शब्दोंकी सिद्धि आगई है। कोई भी शेष नहीं रही है। करनेकी परिपाटी प्राचार्य हेमचन्द्रने ही स्थापित की छोटी-टीका मन्द बुद्धिवाले के लिये अत्यन्त उपयोगी है । वररुचि और भामह भादि अन्य आचर्योंने भी और सरल है । धातुरूप शान के लिये धातु-परायण उर्फ प्राकृत-व्याकरणकी रचना की है; किन्तु उनका दृष्टिधातु-पाठ ५ हज़ार श्लोक प्रमाण है । उणादि सूत्र २०० कोण संस्कृत नाटकों में आई हुई ( व्यवहृत ) प्राकृत, श्लोक प्रमाण हैं । अनेक प्रकार के ललित छन्दों में शौरसेनी आदि भाषाओका भावार्थ समझने तक ही रचित "लिंगानुशासन" तीन हज़ार श्लोक प्रमाण टीका रहा है, जब कि प्राचार्य हेमचन्द्रका अपने समय तकके मे युक्त है । इसी प्रकार कहा जाता है कि आचार्य पाये जानेवाले विविध भाषाओं के सम्पूर्ण साहित्यको हेमचन्द्रने अपने इस व्याकरण पर ८४००० श्लोक समझने के लिये और उन भाषाओंका अपना अपना प्रमाण बृहन्यास नामक विस्तृत विवरण भी लिखा था। स्वतंत्रव्यक्तित्व सिद्ध करने के लिये और उनका पावर. किन्तु दुर्भाग्यस आज वह अनुपलब्ध है । सुना जाता यक सम्पूर्ण व्याकरण रचनेका उद्देश्य रहा है । दूसरी है कि उसका थोड़ा सा भाग पाटन और राधनपुर के विशेषता यह है कि जिस प्रकार प्रसिद्ध वैयाकरण भण्डारोंमें । है इस प्रकार यह सम्पूर्ण कृति १ लाख और पाणिनि ने “छांदसम् " कह कर वेदकी भाषाका २५ हज़ार श्लोक प्रमाण कहीं जाती है। १ मूल (दो व्याकरण लिखा है; उसी तरहसे जैन-आगमों में व्यवहृत वृत्ति सहित) २ धातु-(सत्ति) ३ गणपाठ शब्दों की सिद्धि "आपम्" कह कर की है महाराष्ट्रीय ( सवृत्ति ) ४ उणादि-सूत्र ( सटीक ) और ५ लिंगानु- जैन प्राकृत और अपश-भाषाको समझानेका जितना शासन ( बृहतवृत्ति सहित ) ये पांच अंग सिद्धहेम प्रयत्न प्राचार्य हेमचन्द्रने किया है; उतना अन्यत्र नहीं व्याकरणके कहे जाते हैं। देखा जाता है । अपभ्श भाषाके प्रति तो प्राचार्य स्वोपज्ञवृत्तिमें आचार्यश्रीने प्राचीन वैयाकरणों- हेमचन्द्रका वर्णन अद्वितीय है । भारतकी वर्तमान के मन्तव्योंकी ऊहापोह पूर्वक समालोचना की है; इससे अनेक प्रान्तीय-भाषाओंकी जननी अपभूश ही है । व्य करण-शास्त्र के विकास के इतिहासके अनुसन्धान में इस दृष्टिसे निश्चय ही भाषा-विज्ञान के इतिहास में प्राचार्य महत्त्व पूर्ण सहायता मिल सकती है। गुजरात के इस हेमचन्द्रको यह अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण कृति है। प्रधान व्याकरण में सूत्रक्रम, वृत्ति-कौशल, उदाहरण. अष्टम-अध्यायमें क्रमसे प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, चातुर्य और व्याकरणके सिद्धन्तोंका विश्लेषण आदि पैशाची, चूलिकापैशाची, और अपभूश-भाषाओंका पर विचार करनेसे यह भली प्रकारसे जाना जा सकता व्याकरण है। क्रमशः
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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