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________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं० २४६५ शिक्षाका महत्व (लेखक-पं० परमानन्द शास्त्री) मानव-समाजकी उन्नतिकी जड़ शिक्षा है । इसके वास्तवमें जो शिक्षित हैं—सच्चे अर्थ में शिक्षासे "वारा ही मनुष्य अपनी मानसिक, शारीरिक, नैतिक सम्पन्न है और इसलिये जिनके पास शिक्षारूपी चिन्ताऔर आध्यात्मिक शक्तियोंका उद्भावन एवं विकास कर मणि मौजूद है वे ही संसारमें महान् हैं, प्रतिष्ठित हैं सकता है। शिक्षासे शिष्टता, सभ्यताकी सृष्टि, एवं वृद्धि और धनी हैं । उनके सामने संसारकी दूसरी बड़ीसे बड़ी होती है और उसके द्वारा ही हमारे उस पवित्रतम ध्येय- विभूतियाँ भी तुच्छ है । भीषणसे भीपण आपदाएँ भी की सिद्धि हो सकती है, जिसकी प्राप्तिकी हमें निरन्तर उन्हें अपने कर्तव्यपथसे विचलित नहीं कर सकतीं और वे अभिलाषा लगी रहती है और जिसके लिये हम अनेक बराबर अपने कर्तव्यपर प्रारूढ़ हुए, प्रगति करते रहते तरहके साधन जुटाया करते हैं । आत्मिक शिक्षाही हमारे हैं तथा देशको स्वतन्त्र एवं आज़ाद बनानेमें बड़ी भारी हृदयोंमें सन्निहित अशान अन्धकारके पुंजका नाश शक्तिका काम देते हैं। करती है, अन्धविश्वासको जड़मूलसे उखाड़ कर फेंकती यह सब शिक्षाका ही माहात्म्य तथा प्रभाव है है, कदाप्रहको हटाती है और उसीसे हमें हेयोपादेयका जो हमें पशु जगतसे अलग करता है, अन्यथा ठीक परिशान होता है । शिक्षित समाज ही सर्वकला अाहार, भय, निद्रा और मैथुन ये चारों संज्ञाएँ पशुओं सम्पन्न होकर धार्मिक सामाजिक तथा राजनैतिक खेत्रों- तथा मनुष्यों दोनों में ही समानरूपसे पाई जाती हैं । एक में प्रगति पासकता है, वहीं अपने देशको ऊंचा उठा शिक्षा ही मनुष्यमें विशेषता उत्पन्न करती है और वही सकता है और उसीके प्रयत्नसे राष्ट्र अपनी शक्तिको में पशुत्रोंसे उच्च तथा श्रादर्श नागरिक बनाती है । संगठितकर खूब सम्पन्न समृद्ध तथा लोकोपयोगी बन जा अशिक्षित हैं-वस्तुतत्व से अनभिज्ञ है-अपने सकता है। प्रत्युत इसके, अशिक्षित समाज एक कदम कर्तव्यको नहीं पहिचानते । उन्हें 'विद्या विहीनाः पशुभिः भी भागे नहीं बढ़ सकता, उसमें नवजीवनका संचार समानाः' की नीतिके अनुसार पशुवत् ही समझना हो नहीं सकता, शिक्षित समाजकी तरह वह अपने चाहिये । गौरवको संसारमें कायम नहीं रख सकता है और न परन्तु भारतीय वर्तमान शिक्षण-पद्धतिसे हमारा समय शक्तिके प्रबल वेगके सामने अपनेको स्थिर ही समाज सच्चे अर्यमें शिक्षित नहीं हो सकता और न रख सकता है। २. उसमें प्राचीन भारतीय गौरवकी झलक ही आसकती
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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