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________________ वर्ष २, किरण ६] शिक्षाका महत्व है क्योंकि वर्तमान शिक्षा प्रणाली बहुत कुछ दूषित हो बनाती और न लोकसेवा जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में चुकी है, उसके कारण शिक्षित व्यक्तियोंसे भी शिष्टता प्रवृत्ति हो कराती है। जिससे हमारा प्रात्मा स्वतन्त्रवाऔर सभ्यताका व्यवहार उठता जा रहा है। यही की ओर अग्रसर नहीं होता और न जो हमें कर्तव्यका वजह है कि समाजसे लोकसेवा और विश्वप्रेम जैसी यथेष्ट ज्ञान ही प्रदान करती है, ऐसी शिक्षासे हमारा सद्भावनाएँ भी किनारा करती जाती हैं और वह हमें उत्थान कैसे हो सकता है ! अस्तुः शिक्षा सम्बन्धमें पराधीनता या गुलामीके गर्तमें ढकेलती चली जाती है शिक्षाके ध्येयकी व्याख्या करते हुए भारतकी विभूतिऐसी शिक्षासे हमारे मनोयल तथा शात्मिक शक्तियोंका स्वरूप महात्मा गांधी निम्न वाम्य खासतौरसे मान पूर्ण विकास होना तो दूर रहा, हम साधारणसे दुःख देने योग्य है:कष्टोका भी मुकाबला करनेके लिये समर्थ नहीं हो "जो शिक्षा चित्तकी शुदि न करती हो, मन और सकते हैं। वह हमारे पथमें रोड़े अटकाती है और इन्द्रियोंको वशमें रखना न सिखाती हो, निर्भयता हमें कर्तव्य-विहीन, अकर्मण्य, स्वार्थी, प्रमादी और और स्वावलम्बन न पैदा करे, उप-जीविकाका साधन देश-द्रोही बनाती जाती है। यही कारण है जो हमसे न बतावे और गुलामीसे छूटनेका और बाजाद बनेका स्वावलम्बन तथा सदाचार दूर होता चला जाता है हौसला, साहस और सामर्थ न पैदा करे, उसमें जान और उनके स्थानपर पराधीनता तथा असदाचारता कारीका खजाना कितना ही भरा हो, कितनी ही हमें घेरे हुए है । आज भारतीय समाजोंमें तार्किक कुशलता और भाषा-पाण्डित्य हो, यह वास्तफैशनका रोग इतना बढ़ गया है कि उससे भारतका विक नहीं, अधूरी है।" कोई भी प्रान्त देश या नगर-ग्राम अछूता नहीं बचा है। महात्माजीके इन महत्वपूर्ण एवं सारगर्मित वाक्यों यह रोग टिही दलके समान भारतियोंके सीधे-सादे पर ध्यान रखते हुए हमें अब अपने कर्तव्यकी ओर आनन्दप्रद रहन-सहन और वेष-भूषाका एकदम पूर्ण तौरसे ध्यान देना चाहिये । भारतके सभी बीसफाया बोलता हुआ चला जाता है। और इसने भारत- पुरुषों, बालक-बालिकाओं और बढ़े तथा जवानोंको की सभ्यताका नाशकर उसे उजाड़ सा बना दिया है। शिक्षित करनेका उन्हें साक्षर विद्यावान एवं सदाचारी आज भारतके नवयुवक और युवतियां सभी जन बनानेका प्रयत्न करना चाहिये । इसके लिये उनै बर्वपाश्चात्य सभ्यताकी चकाचौंधमें चुंधियाकर अपने प्राचीन मान शिक्षा प्रणालीको छोड़ कर प्राचीन शिक्षा पद्धतिक गौरवको भूलते जा रहे है, विदेशोंकी चमकीली, अनुसार अथवा उसमें थोड़ासा उपयोगी सुधार करके भड़कीली वस्तुओंके लुभावमें पड़कर अपने गरीब देश- सत्-शिक्षाका प्रायोजन करना होगा, तभी मारत अपनी का करोड़ों अरबों रुपया उनके संग्रह करनेमें म्यर्थ खोई हुई स्वाधीनता प्राप्त कर सकेगा और तभी भारतफंसाते जारहे हैं। यह सब दलित शिक्षा प्रणालीका ही वासी अपनी लौकिक तथा पारमार्षिक उन्नति कर सकेंगे प्रभाव है। वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा, __वास्तवमें वह शिक्षा ही नहीं, जो मस्तिकको परिणत ता.१५-१-१E तया चित्रको निर्मल एवं प्रसादादिगुगोंसे युक्त नहीं
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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