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अनेकान्त
और तुल देने वाला ये दोनों कर्म एक साथ फल नहीं 'दे सकते है। जिस समय साताका उदय होगा उस समय
साता कर्म बेकार रहेगा और जिस समय असाताका उदय होगा उस समय साता फर्म बेकार रहेगा । परन्तु कमका एक एक हिस्सा तो क्षण क्षणमें जरूर ही कहता रहता है, इस कारण सुखका निमित्त मिलने पर जिस समय साता कर्म फल दे रहा होगा उस समय
साताकर्म बिना फल दिये ही मड़ता रहेगा और जब दुखका निमित्त कारण मिलनेपर असाताकर्म फल दे रहा होगा उस समय साताकर्म बिना फल दिये ही ड़ता रहेगा। दोनों कर्म जब एक साथ काम नहीं कर सकते हैं तब एक कर्मको तो ज़रूर बेकार रह कर ही झड़ना पड़ेगा । इसही तरह रति और अरति अर्थात् प्यार और तिरस्कार हास्य और शोक अर्थात् खुशी और रंज दोनों एक साथ फल नहीं दे सकते हैं—एक समय में एक ही कर्म फल देगा और दूसरेको बिना फल दिये ही फड़ना पड़ेगा । निद्रा कर्मको देखिये कायदेके "बमूजिब उसका भी एक एक हिस्सा क्षण क्षणमें झड़ता रहता है, परन्तु जब तक हम सोते हैं तब तक तो बेशक निन्द्राकर्म अपना फल देकर ही फड़ता है, लेकिन जितने समय तक हम जागते हैं, उतने समय तक तो निंद्रा कर्मको बेकार ही कड़ता रहना पड़ता है । इसही प्रकार अन्य भी अनेक दृष्टांत दिये जा सकते हैं, जिनसे यह स्पष्ट हो जिस समय कर्मको अपना फल देनेका निमित्त मिलता है वह कर्म तो उस समय फल देकर हो खिरता है बाकी जिन कर्मोंको निमित्त नहीं मिलता है वे सब बिना फल दिये ही खिरते रहते हैं।
भगवती आराधनासारकी संस्कृत टीकामें भी अपराजितसूरिने गाया १७५४के नीचे स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि 'कर्म उपादान हैं जिनको अपना फल देनेके
[ वैशाख, वीर - निर्वाण सं० २४६५
वास्ते द्रव्य क्षेत्र आदि निमित्त कारणोंकी आवश्यकता होती है। जिस प्रकार नामका बीज मिट्टी पानी और हवा श्रादिका निमित्त पाकर ही वृक्ष बनता है और फल देता है, बिना निमित्त मिले हमारे बक्समें रक्खा हुआ वैसे ही बोदा होकर निकम्मा हो जाता है। इस ही प्रकार कर्म भी बिना निमित्त मिले कुछ भी फल नहीं दे सकते हैं, यूंही व्यर्थ ही झड़ जाते हैं। इस ही प्रकार गाथा १७२६ के नीचे लिखा है कि जब द्रव्य क्षेत्र, काल आदि मिलते हैं तब ही कर्म अपना फल आत्माको देते हैं।' ऐसा ही गाथा १७४० के नीचे लिखा है । ऐसा ही मूलाराधना टीकामें गाथा १७११ के नीचे लिखा है कि 'द्रव्य' क्षेत्र श्रादिके श्राश्रयसे कर्मका योग्यकाल में श्रात्माको फल मिलना कर्मका उदय होना कहलाता है । वास्तवमें निमित्त कारण यहाँ बलवान इसीसे महामुनि गृहस्थाश्रमको छोड़ श्राबादीसे दूर जंगलमें चले जाते हैं । गृहस्थियोंकी आबादी में स्त्री पुरुषोंके समूह में राग-द्वेष और विषय कषायका ही बाजार गरम रहता है, हर तरफ़ उन्हीका खेल देखनेमें श्राता है और उन्हीं की चर्चा रहती है। ऐसे लोगोंके बीचमें रह कर परिणामोंका शुद्ध रहना - किंचित मात्रभी विचलित न होना - एक प्रकार असम्भव ही है, इसी कारण श्रात्मकल्याणके इच्छुक महामुनि विषय कंत्राय उत्पन्न करने वाले निमित्त कारणोंसे बचनेके वास्ते आबादीसे दूर चले जाते हैं। उनके चले जाने पर आबादी उजड़ नहीं जाती, किन्तु वैसी ही बनी रहती है जैसी कि पहले थी । इससे साफ़ सिद्ध है कि यह आबादी उनके कमकी बनाई हुई नहीं थी, किन्तु उनके वास्ते निमित्त कारण जरूर थी, तब ही वे उसको छोड़ सके। उनके कर्मोंकी बनाई हुई होती तो उनके साथ जाती; क्योंकि जिन कर्मोंने उनके वास्ते आबादीका सामान बनाया है, वे कर्म