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________________ २८६ श्रनेकान्त [फाल्गुण, वीर- निर्वाण सं० २४६५ होता है। उसके बाद असंख्यात लोकमात्र पट् स्थान जा करके म्लेच्छखण्ड के देशसंयमी मनुष्यके सकलसंयमग्रहणके प्रथम समय में उत्कृष्ट सकलसंयम-लधिका स्थान होता है । तदनन्तर असंख्यात लोकमात्र घट् स्थान जा करके आर्यखंडके देशसंयमी मनुष्य के सकलसंयमग्रहण के प्रथम समयमें वर्तमान उत्कृष्ट सकलसंयम - लब्धिस्थान होता है । ये सब सकलसंयम ग्रहणके प्रथम समय में होने वाले आर्य म्लेच्छभूमिज मनुष्यविषयक संयम-लब्धिस्थान 'प्रतिपद्यमान स्थान' कहलाते हैं ।' चरस्य संयमग्रहण-प्रथमसमये उत्कृष्टं संयमलब्धिस्थानं भवति । ततः परमसंख्येयलोकमात्राणि षट्स्थानानि गत्वा श्रार्यखंडज-मनुष्यस्य देशसंयतचरस्य संयमग्रहण-प्रथमसमये वर्तमानमुत्कृष्टं सकलसंयम लब्धिस्थानं भवति । एतान्यार्यम्लेच्छमनुष्यविषयाणि सकलसंयम-ग्रहण-प्रथमसमये वर्तमानानि संयमलब्धिस्थानानि प्रतिपद्यमानस्थानानीत्युच्यन्ते । अत्रार्य म्लेच्छमध्यमस्थानानि मिथ्यादृष्टिचरस्य वा असंयतसम्यग्दृष्टिचरस्य वा देशसंयतचरस्य वा तदनुरूपविशुद्धा सकलसंयमं प्रतिपद्यमानस्य संभवन्ति । विधिनिषेधयोर्नियमाऽवचने संभवप्रतिपत्तिरिति न्यायसिद्धत्वात् । अत्र जघ यद्वयं यथायोग्यतीत्रसंक्ले. शविष्टस्य, उत्कृष्टद्वयं तु मंदसंक्लेशाविष्टस्येति ग्राह्यं । म्लेच्छभूमिज मनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं संभवति? इतिनाशं कितव्यम् । दिग्विजयकालेचक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां म्लेच्छराजानां चक्रवर्त्यादि - भिः सह जात वैवाहिकसम्बन्धानां संयम प्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषुत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् । तथाजातीयकानां दीक्षार्हत्वे प्रतिषेधाभावात् । " टीका में गाथाके श्राशयको स्पष्ट करते हुए लिखा हैं और चक्रवर्ती श्रादिके साथ वैवाहिक सम्बंधको प्राप्त होते हैं उनके सकलसंयम के ग्रहरणका विरोध नहीं है— अर्थात् जब उन्हें सकलसंयम के लिये पात्र नहीं समझा जाता तब उनके दूसरे सजातीय म्लेच्छबन्धुत्रों को श्रपात्र कैसे कहा जा सकता है और कैसे उनके सकलसंयमग्रहणकी संभावनासे इनकार किया जा सकता है ? कालान्तर में वे भी आर्यखंडको श्राकर सकलसंयम ग्रहण कर सकते हैं, इससे शंका निर्मूल है । अथवा उन म्लंच्छोंकी जो कन्याएँ चक्रवर्ती श्रादिके साथ विवाहित t 'उस देशसंयम- प्रतिपाताभिमुख उत्कृष्ट प्रतिपातस्थानसे असंख्यात लोकमात्र पट् स्थानोंका अन्तराल करके मिध्यादृवि श्रार्यखंड जमनुष्य के सकलसंयम-ग्रहणके प्रथम समय में वर्तमान जघन्य सकलसंयम लब्धिस्थान होता है। उसके बाद असंख्यात लोकमात्र घट् स्थानोंको उल्लंघन करके मिथ्यादृष्टि म्लेच्छभूमिज मनुष्य के संयमग्रहण के प्रथम समय में वर्तमान सकलसंयम लब्धिका जघन्य स्थान 'यहां श्रार्यखंडज और म्लेच्छखंडज मनुष्यों के मध्यम स्थान - जघन्य और उत्कृष्ट स्थानोंके बीच स्थानमिथ्यादृष्टि वा श्रसंयतसम्यग्दृष्टिसे अथवा देशसंयतसे सकलसंयमको प्राप्त होनेवालेके संभाव्य होते हैं । क्योंकि विधि - निषेधका नियम न कहा जाने पर संभवकी प्रतिपत्ति होती है, ऐसा न्याय सिद्ध है । यहां दोनों जघन्य स्थान यथायोग्य तीव्रसंक्लेशाविष्टके और दोनों उत्कृष्ट स्थान मंदसंक्लेशाविष्टके होते हैं, ऐसा समझ लेना चाहिये ।' 'म्लेच्छ भूमिज अर्थात् म्लेच्छखंडों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के सकलसंयमका ग्रहण कैसे संभव हो सकता है ? ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि दिग्विजयके समय में चक्रवर्तीके साथ जो म्लेच्छराजा श्रार्यखंडकोश्राते
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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