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वर्ष २ किरण ५]
गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख
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होती है उनके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले मातृपक्षको की रचना की है। चूर्णिसूत्रोंमें कर्मभमिक और अकर्मअपेक्षा म्लेच्छ कहलाते हैं उनके सकलसंयम संभव होने- भूमिक शब्दोंका प्रयोग था,कर्मभूमिकमें म्लेच्छ खण्डोंके से भी म्लेच्छभूमिज मनुष्योंके सकलसंयम-ग्रहणको सं- मनुष्य पा सकते थे और अकर्मभूमिकमें भोगभूमियोंका भावना है। उस प्रकारकी जातिवाले म्लेच्छोंके दीदा- समावेश हो सकता था। इसीसे जयधवलकारको 'कर्मग्रहणकी योग्यताका (आगममें) प्रतिषेध नहीं है-इससे भूमिक' और 'अकर्मभूमिक' शब्दोंके प्रकरणसंगत बान्य भी उन म्लेच्छभूमिज मनुष्यों के सकलसंयम-ग्रहणकी को स्पष्ट कर देनेकी ज़रूरत पड़ी और उन्होंने यह स्पष्ट संभावना सिद्ध है जिसका प्रतिषेध नहीं होता उसकी कर दिया कि कर्मभूमिकका वाच्य 'श्रार्यखण्डज' मनुष्य संभावनाको स्वीकार करना न्यायसंगत है।' और अकर्मभूमिक का 'म्लेच्छखण्डज' मनुष्य है-साथ ___ यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ ही यह भी बतला दिया कि म्लेच्छखण्डज कन्यासे कि श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती जयधवलकी रचना आर्यपुरुपके संयोग-द्वारा उत्पन्न होनेवाली सन्तान भी के बहुत बाद हुए हैं-जयधवल शक सं०७५६ में बन एक प्रकारसे म्लेच्छ तथा अकर्मभूमिक है, उसका भी कर समाप्त हुआ है और नेमिचन्द्राचार्य गोम्मटस्वामीकी समावेश 'अकर्मभूमिक' शब्दमें किया जा सकता है। मूर्तिका निर्माण करानेवाले तथा शक संवत् ६०० में इसीलिये नेमिचन्द्राचार्यने यह सब समझ कर ही अपनी महापुराणको बनाकर समाप्त करने वाले श्रीचामुण्ड- उक्त गाथामें कर्मभूमिक और अकर्मभूमिकके स्थान पर रायके समय में हुए और उन्होंने शक सं०६० ०के बाद ही क्रमशः 'अज' तथा 'मिलेच्छ' शब्दोंका प्रयोग दूसरा चामुंडरायकी प्रार्थनादिको लेकर जयधवलादि ग्रंथों परसे कोई विशेषण या शर्त साथमें जोड़े बिना ही किया है, जो गोम्मटसारादि ग्रंथोंकी रचना की है । लब्धिसार ग्रन्थ देशामर्शकसूत्रानुसार 'आर्यखण्डज' तथा 'म्लेच्छखण्डज' भी चामुण्डरायके प्रश्नको लेकर जयधवल परसे सार- मनुष्यके वाचक हैं; जैसा कि टीकामें भी प्रकट किया संग्रह करके रचा गया है; जैसा कि टीकाकार केशववर्णी- गया है । ऐसी हालतमें यहां (लब्धिसारमें) उस प्रश्न के निम्न प्रस्तावना-वाक्यसे प्रकट है-
की नौबत ही नहीं पाती जो जयधवलमें म्लेच्छखण्डज ___"श्रीमाचेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती सम्यक्त्वच- मनुष्यके अकर्मभूमिक भावको स्पष्ट करने पर खड़ा हुआ डामणिप्रभृतिगुणनामानित-चामुण्डरायप्रश्नानुरूपेण था और जिसका प्रारंभ 'जइ एवं'-'यदि ऐसा है-',इन कषायप्राभृतस्य जयधवलाख्यद्वितीयसिद्धान्तस्य पंच- शब्दोंके साथ होता है तथा जिसका समाधान वहां उदादशाना महाधिकाराणां मध्ये पश्चिमस्कंधाख्यस्य पंच- हरणात्मक हेतुद्वारा कियागया है। फिर भीटीकाकारने उस दशस्यार्थ संगृह्य लब्धिसारनामधेयं शास्त्रं प्रारभमाणो का कोई पर्व सम्बन्ध व्यक्त किये बिना ही उसे जयधवल भगवत्पंचपरमेष्ठिस्तव प्रणामपर्विको कर्तव्यप्रतिज्ञा परसे कुछ परिवर्तनके साथ उद्धृत कर दिया है ( यदि विधत्ते ।”
टीकाका उक्त मुद्रित पाठ ठीक है तो) और इसीसे टीकाके ___ जयधवल परसे जो चार चूर्णिसूत्र ऊपर (नं० २, पूर्व भागके साथ वह कुछ असंगतसा जान पड़ता है। ४ में ) उद्धृत किये गये हैं उन्हें तथा उनकी टीकाके इस तरह यतिवृषभाचार्यके चूर्गिसूत्रो, वीरसेनआशयको लेकर ही नेमिचन्द्राचार्यने उक्त गाथा नं० १६५ जिनसेनाचार्योंके 'जयधवल' नामक भाष्य, नेमिचन्द्र