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अनेकान्त
[फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं०२४१५
सिद्धान्तचक्रवर्तीके लब्धिसार ग्रन्थ और उसकी केशव- कार केशववर्णीने !! क्योंकि यतिवृषभने अपनी चूर्णिमें वणि कृत टीका परसे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि म्लेच्छ- अकर्मभूमिक पदके साथ ऐसा कोई शब्द नहीं रक्खा खंडोंके मनुष्य संयमलब्धिके पात्र है-जैन मुनिकी दीक्षा जिससे उसका वाच्य अधिक स्पष्ट होता या उसकी लेकर, छठे गुणस्थानादिकमें चढ़ कर, महाव्रतादिरूप व्यापक शक्तिका कुछ नियन्त्रण होता ! जयधवलकारने सकलसंयमका पालन करते हुए अपने परिणामोंको वि. अकर्मभूमिकका अर्थ सामान्यरूपसे म्लेच्छखंडोंका शुद्ध कर सकते हैं । यह दूसरी बात है कि म्लेच्छग्वंडोंमें विनिवासी मनुष्य कर दिया ! तथा चर्णिकारके साथ रहते हुए वे ऐसा न कर सकें; क्योंकि वहाँकी भूमि पूर्ण सहमत न होते हुए भी अपना कोई एक सिद्धान्त धर्म-कर्मके अयोग्य है । श्री जिनसेनाचार्यने भी, भरत कायम नहीं किया !! और जो सिद्धान्त प्रथम हेतुके द्वारा चक्रवर्तीकी दिग्विजयका वर्णन करते हुए ‘इति प्रसाध्य- इस रूपमें कायम भी किया था कि सिर्फ वे ही म्लेच्छ तो भूमिमभूमि धर्मकर्मणाम्' इस वाक्यके द्वारा उस राजा सकलसंयमको ग्रहण कर सकते हैं जो चक्रवर्तीकी म्लेच्छभूमिको धर्म-कर्मकी अभूमि बतलाया है। वहाँ सेनाके साथ आर्यखण्डको श्राकर अपनी बेटी भी चक्ररहते हुए मनुष्योंके धर्म-कर्मके भाव उत्पन्न नहीं होते, वर्ती या आर्यखंडके किसी दूसरे मनुष्यके साथ विवाह यह ठीक है। परन्तु आर्यखंडमें श्राकर उनके वे भाव देवें, उसका फिर दूसरे हेतु-द्वारा परित्याग कर दिया और उत्पन्न हो सकते हैं और वे अपनी योग्यताको कार्यमें यह लिख दिया कि ऐसे म्लेच्छ राजाओंकी लड़कीसे जो परिणित करते हुए खुशीसे श्रार्यखण्डज मनुष्योंकी तरह संतान पैदा हो वही सकल संयमकी पात्र होसकती है !!! सकलसंयमका पालन कर सकते हैं । और यह बात पहले इसी तरह सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी अपनी उक्त गाथामें ही बतलाई जा चुकी है कि जो लोग सकलसंयमका पालन प्रयुक्त हुए 'मिलेच्छ' शब्दके साथ कोई विशेषण नहीं कर सकते हैं-उसकी योग्यता अथवा पात्रता रखते हैं- जोड़ा-यार्यखण्डके मनुष्यों के साथ विवाह सम्बन्धवे सब गोत्र-कर्मकी दृष्टिसे उच्च गोत्री होते हैं । इसलिये जैसी कोई शर्त नहीं लगाई–जिससे उसकी शक्ति सीमित श्रार्यखंड और म्लेच्छखंडोंके सामान्यतया सब मनुष्य होकर यथार्थतामें परिणत होती !! और न उनके टीकाअथवा सभी कर्मभमिज मनुव्य सकलसंयमके पात्र होने के कारने ही उस पर कोई लगाम लगाया है; बल्कि खुले साथ-साथ उच्चगोत्री भी हैं। यही इस विषय में सिद्धान्त- श्राम म्लेच्छभूमिज-मात्रके लिये सकल संयमके जघन्य, ग्रंथाका निष्कर्ष जान पड़ता है।
मध्यम तथा उत्कृष्ट स्थानोंका विधान कर दिया है !!! विचारकी यह सब साधन-सामग्री सामने मौजूद मेरे खयालसे शास्त्रीजीकी रायमें इन श्राचार्योंको चर्णिहोते हुए भी, खेद है कि शास्त्रीजी सिद्धान्तग्रंथोंके उक्त सूत्र श्रादिमें ऐसे कोई शब्द रख देने चाहिये थे जिनसे निष्कर्षको मानकर देना नहीं चाहते ! शब्दोंकी खींच- सामान्यतया सब म्लेच्छोंको सकलसंयमके ग्रहणका तान-द्वारा ऐसा कुछ डौल बनाना चाहते हैं जिससे अधिकार न होकर सिर्फ उन ही म्लेच्छ राजाओंको वह यह समझ लिया जाय कि सिद्धान्तकी बातको न तो यति- प्राप्त होता जो चक्रवर्तीकी सेनाके साथ श्राकर अपनी वृषभने समझा,न जयधवलकार वीरसेन-जिनसेनाचार्यो- बेटी भी प्रार्यखण्डके किसी,मनुष्यके साथ विवाह देतेने, न सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रने और न उनके टीका- बेटी विवाह देने की शर्त खास तौर पर लाजिमी रक्खी