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________________ वर्ष २, किरण ५] गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख २८५ - 'अथवा-और प्रकारान्तरसे +- न म्लेच्छोंकी नहीं है, अर्थात् एक को सकलसंयमका पात्र और जो कन्याएँ चक्रवर्ती श्रादिके साथ विवाहित होती हैं दूसरेको अपात्र नहीं कहा जासकता क्योंकि उस प्रकारकी उनके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले मातृपक्षकी अपेक्षा दोनों ही जातिवालोंके दीक्षाग्रहणकी योग्यताका प्रतिस्वयं अकर्मभूमिज (म्लेच्छ) होते हैं-अकर्मभूमिककी षेध नहीं है-अर्थात् आगम अथवा सिद्धान्त ग्रन्थों में न सन्तान अकर्मभमिक, इस दृष्टिसे-वे भी यहाँ विवक्षित तो उस जातिके म्लेच्छोंके लिये सकलसंयमकी दीक्षाका हैं-उनके भी सकलसंयमकी पात्रता और संयमका निषेध है जो उक्त म्लेच्छखंडोंमेंसे किसी भी म्लेच्छखंड उक्त जघन्य स्थान अनंतगुणा है । इस लिये कुछ भी के विनिवासी (कदीमी बाशिन्दे) हों तथा चक्रवर्तीकी विप्रतिषिद्ध नहीं है-दोनोंके तुल्य बलका कोई विरोध सेना श्रादिके साथ किसी भी तरह आर्यखण्डको भागये 'अथवा' तथा 'वा' शब्द प्रायः एकार्थ-वाचक हो, और न उस जातिवालोंके लिये जो म्लेच्छरखंडकी हैं और वे 'विकल्प' या 'पक्षान्तर' के अर्थमें ही नहीं. कन्याश्रोसे आर्यपुरुषोंके संयोग-द्वारा उत्पन्न हुए हो।' किन्त 'प्रकारान्तर' तथा 'समञ्चय' के अर्थ में भी आते 'सकलसंयमको प्राप्त करनेवाले उसी अकर्मभूमिक हैं: जैसा कि निम्न प्रमाणों से प्रकट है :- मनुष्यके उत्कृष्ट संयम स्थान-देशसंयतसे सकलसंयम अहवा (अथवा ), "सम्बन्धस्य प्रकारान्तरो- ग्रहणके प्रथम समयमें वर्तमान उत्कृष्ट संयम-लब्धिस्थान पदर्शने", २ "पर्वोक्तप्रकारापेक्षया प्रकारान्तरत्व -अनन्तगुणा है । किससे ?...।' द्योतने ।” -अभिधानराजेन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्राचार्यने श्रार्यखटज वा='वा स्याद्विकल्पोपमयोरिवार्थेऽपि समुच्चये । और म्लेच्छखंडज मनुष्योंके सकलसंयमके जघन्य और -विश्वलोचन कोश, सिद्धान्तकौ० त० टी० उत्कृष्ट स्थानोंका यह सब कथन लब्धिसार ग्रंथकी गाथा 'अथ' शब्द भी 'समुच्चय' के अर्थमें आता है। नं० १६५ में समाविष्ट किया है, जो संस्कृतटीका-सहित यथा इस प्रकार है___“अथेति मङ्गलाऽननन्तरारम्भप्रश्नकार्त्यधि ततो पडिवजगया अजमिलेच्छे मिलेच्छअजेय । कारप्रतिज्ञासमुच्चयेषु ।" कमसो अवरं वरं वरं वरं होदि संखं वा ॥ -सिद्धान्तको० तत्त्वबो० टी० टीका-तस्माद्देशसंयमप्रतिपाताभिमुखोत्कृष्टप्रति. 'अहवा' के प्रयोग का निम्न उदाहरण भी ध्यान पातस्थानादसंख्येयलोकमात्राणि षट्स्थानान्यन्तरयिमें लेने योग्य है त्वामिथ्यादृष्टिचरस्याऽऽर्यखण्डजमनुष्यस्यसकलसंयम "आहारे धणरिद्धि पवइ,चउविहुवाउ जि एहुपवट्ठइ ग्रहणप्रथमसमये वर्तमानं जघायं सकलसंयम-लब्धिअहवा दुट्ठवियप्यहँ चाए,चाउ जिएहुमुबहु समवाए।' स्थानं भवति । ततः परमसंख्येयलोकमात्राणि पट -दशलाक्षणिकधमजयमाला स्थानान्यतिक्रम्य म्लेच्छभमिज-मनुष्यस्य मिथ्यादृष्टिविप्रतिषेधः-"तुल्यबलविरोधो विप्रतिषेधः।" चरस्य संयमग्रहण-प्रथमसमये वर्तमानं जघन्यं संयम"The opposition of two courses of action लब्धिस्थानं भवति । ततः परमसंख्येयलोकमात्राणि which are equally important, the conflict of two even matched interests." v. S. Apte. षट्स्थानानि गत्वा म्लेच्छभूमिजमनुष्यस्य देशसंयत
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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