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वीर प्रभुके धर्ममें । जाति भेदको स्थान नहीं है।
बेसी बाबू साबमानुजी
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जीवमात्रके कल्याणका जो सच्चा और सीधा मार्ग प्रचार कर भोले लोगोंको अधर्म मार्गसे हटाकर कल्या
श्रीवीरप्रभुने बताया है वही जैनधर्म कहलाता णके मार्ग पर लासकते हैं। है, उस ही धर्मके अनुयायी होनेका दावा हम लोग करते वो समय वह था जबकि पशु-पक्षियों को मारकर हैं । अढाई हज़ार बरस हुए जब वीरप्रभुका जन्म इस अग्निमें फंकदेना ही बहुधा धर्म और स्वर्ग तथा मोक्ष
आर्यावर्त में हुआ था, तब जैमा महान् अंधकार यहाँ प्राप्तिका माधन समझा जाता था, हिंसा करना ही धर्म फैला हुश्रा था, जिस प्रकार खुल्लमखुल्ला पापको पुण्य माना जाता था, निर्दयता ही कल्याणका मार्ग होरहा
और अधर्म को धर्म बताया जारहा था, डंकेकी चोट था। यशमें होम किये जानेके वास्ते ही परमेश्वरने पशुधर्मके नामपर जैसा कुछ जुल्म और अन्याय होरहा था पक्षी बनाये हैं, जो पशु-पक्षी यशके अर्थ मारे जाते हैं वे उसको सुनकर बदनके रोंगटे खड़े होते हैं, वीरप्रभुने उत्तम गति पाते हैं, वेदके तत्त्वको जाननेवाले जो किस प्रकार यह मब जुल्म हटाया, दयाधर्मका पाठ ब्राह्मण मधुपर्क श्रादि अनुष्ठानों में अपने हाथसे पशुश्रोपढ़ाया, मनुष्यको मनुष्य बनना सिखाया, उसको सुनकर को मारते हैं वे सद्गति पाते हैं और जिन पशुओंको वे
और भी ज्यादा आश्चर्य होता है और वीरप्रभुकी सची मारते हैं उनकी भी सद्गति दिलाते हैं, हर महीने पितवीरताका परिचय मिलता है । सच्चे धर्मके ग्रहण करने रोका श्राद्ध अवश्य करना चाहिये और वह भाद्ध मांसके और उसका प्रचार करनेके लिये सबसे पहले हृदयसे द्वारा ही होना चाहिये, बाद में ब्राह्मणोंको मांस अवश्य सब प्रकारका भय दूर करनेकी आवश्यकता इसही खाना चाहि में नियुक्त हुआ जो ब्राह्मण मांस कारण तो शास्त्रोंमें बताई गई है कि उलटे पुलटे खानसे इनकारना उसको इम अपराधके कारण प्रचलित सिद्धान्तोंके विरुद्ध सत्यसिद्धान्तका व्याख्यान २१ बार पशु जन्म लेना पड़ेगा, इस प्रकारकी अद्भुत करने पर दुनिया भड़कती है। और सब ही प्रकारकी धर्म-अाज्ञाएँ उम ममय प्रचलित थी और ईश्वर-वाम्य आपत्तियाँ उपस्थित करने पर उतारू होती है। जिनके मानी जाती थी। हृदयमें भय नहीं होता, सत्यके वास्ते जो सबही प्रकार उन दिनों याममार्ग नामका भी एक मत बहुत की आपत्तियाँ फेसनेको तथ्यार होते हैं वे ही निर्मय देखो, मनमविषयावर डोकर, होकर सत्यको ग्रहण कर सकते और सत्य सिद्धान्तका .., १२, बच्चावरोक ।