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________________ 0000000000000000 0000000000000000 हमारी 0000000000 తెలం-600000000000000000000000000000000 लेखक 000000000000 विभूतियाँ श्रीनाथूराम प्रेमी 0000000000000000 श्री जैनेन्द्रकुमार Sanasenage00008 Boeeeeeeeeeeee8 500000000000000000000000000000000000000000000000000 [ हमारी समाज में वर्तमान में भी ऐसे साहित्य-सेवी, दार्शनिक, लेखक, कवि, दानवीर, धर्मवीर, देशभक्त और लोकसेवक विद्यमान हैं, जिनपर हमें क्या ससारको अभिमान हो सकता है । “अनेकान्तम" कुछ ऐसीही विभूतियों के परिचय देनकी प्रबल इच्छा थी । हर्ष है कि मेरी प्रार्थनाको मान देकर श्री. जैनेन्द्रकुमारजीने इस स्तम्भक उद्घाटन करनेकी कृपाकी है। -व्यवस्थापक ] साई अयोध्याप्रसादजी चाहते हैं कि श्री नाथूराम कोई एक महीने तक मेरे यहाँ पड़ी रही । साहस न होता 'प्रेमीसे मेरा परिचय है. मी उनके बारे में कुछ था, किस भेज ? वहाँ भेज़ ! प्रकाशकोंके विषय में ऐसीलिखादं । परिचय मेरा उतना घना नहीं है जितना और वैसी कहानियां सुनी थीं और मैं एकदम नया था। बहुतोंका होगा। उम्रमें वह मेरे बड़े हैं। उस अर्थमं हम फिर जाने क्या मझा कि एकबार जीको कड़ा कर साथी नहीं हैं । मुझे सुध-बुध नहीं थी, तब उन्होंने मैंने पुस्तक नाथूराम प्रेमीजीको भेजदी । आशा थी हिन्दी-साहित्य के क्षेत्रमें स्मरणीय काम किया। बम्बईकी वह बेरंग वापिस पाजायगी। और उसकी कोई पूछ न उनकी हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर सीरीज़' हिन्दी-प्रकाशन में होगी। लेकिन भेजने के चौथे रोज़ही एक स्वत मिला कि शायद सबसे नामी ग्रन्थ-माला है । उसका प्रारम्भ हुआ पुस्तक आपकी मिली है । देखकर उत्तर दूंगा। उसके तब मैं बच्चा हूँगा। तीसरे राज़ पत्र मिल गया कि पुस्तक हम छाप सकते हैं । ___ परिचय मेरा इस तरह हुआ । मेरे पास एक छोटी- और जो टस हो, लिखें रुपया हम पहले भी भेज सकते हैं । सी पुस्तक लिखी हुई थी। उसका नाम था 'परख' । वह मुझ नए लेखक के लिए यह व्यवहार अप्रत्याशित एक प्रकाशकको दी गई थी, लेकिन उन्हें वाइदा करने पर था। लेकिन श्री नाथूराम प्रेमीकी यही खूबी है। वह भी छापनेकी सुविधा नहीं हो सकी थी। नया लेखक था। व्यवहार में अत्यन्त प्रामाणिक हैं। और जहाँ लाभका परिचय मेरा था नहीं। कौन मेरी किताब छापता ? जो सौदा किया जाता है, वहाँभी वह प्रामाणिकता नहीं परिचित थे, वही छापना टालते रहे तो मैं और 'कससे तजेंगे, अपना लाभ छोड़ सकते हैं । स्या आशा कर सकता था? ऐसी हालतमें स्थानीय फिर तो परिचय घनिष्ट ही होता गया। मैंने देखा प्रकाशक-मित्रके यहाँसे लौटने पर पुस्तककी पाण्डु-लिपि कि उन्हें सत्साहित्यकी सहज परख है। किसी विद्वत्ताकी
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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