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________________ १५२ अनेकान्त [मार्गशिर वीर-निर्वाण सं० २४६५ नहीं हुआ था । उन बेचारोंकी बाबत तो मनुमहाराज वंशी राजा चन्द्रगुप्तका गौरव बढ़ेगा, आंधों के कानमें शायद इतनीसी भनक पड़गई होगी कि (द्राविड़ों) के बाद लिच्छिवियोंके ही दोहतांका शक लोग वहाँ भी बौद्धधर्म फैलानेकी कोशिश अटल राज्य सारे हिदुस्तानमें होगा। इसही गुप्तवंश कर रहे हैं। बस इतनेहीसे आग-बबूला होकर के द्वारा ब्राह्मण-धर्मका प्रचार होगा और इन्हींकी उनको भी धर गिराया। उधर उड़ीसाके निवासी जय बोली जायगी । यह तो रहे मनुमहाराजके जैनी थे और पौंड देशमें भी राजा खारवेलके द्वारा उद्गार; अब दूसरों की भी सुनिये जो इनसे भी जैन-धर्म फैल गया था। इसकारण ये लोग तो ऊँचे कूदे और जिन २ देशों में बौद्ध या दंडके योग्य थे ही । अब रहे द्राविड़ यह सब लोग जैन रहते थे उनकी बाबत यहाँतक लिख मारा कि दक्षिणी हैं; दक्षिणको ही द्राविड़ देश कहते हैं। जो कोई उन देशों में जायगा उसको घर आनेपर दक्षिणमें श्री भद्रबाहस्वामीके संघके चले जानेके प्रायश्चित करना पड़ेगा। कारण वहाँ जैनधर्मका कुछ २ प्रचार होने लगा अङ्ग बङ्ग कलिङ्गेषु सौगष्ट्रमगधेषुच । था। यहही भनक कानमें पड़ने के कारण मनुमहाराजका पारा तेज होगया और सारेही तीर्थ यात्रां विना गत्वा पुनः संस्कारमर्हति ॥ द्राविड़ोंको पतित लिख दिया। उन्हें क्या मालूम था -सिद्धान्तकौमदीकी तत्वबोधनी टीका कि अभी थोड़े ही दिनोंमें द्राविड़ लोग ही अर्थात भावार्थ-बंगाल, उड़ीसा, काठियावाड़ और शालिवाहन आदि आन्ध्र राजा इस राज्यको मगध देशमें जो कोई तीर्थयात्राके सिवाय अन्य ब्राह्मण राजानोंसे छीनकर ब्राह्मण धर्मको रक्षा किसी कारणसे जावेगा तो उसको फिरसे संस्कार करेंगे और मनुमहाराज जैसे अनेक ब्राह्मणोंसे कराना पड़ेगा। जय-जयकारका आशीर्वाद प्राप्त करेंगे। अभी २ पाठकोंने पढ़ा है कि कण्व ब्राह्मणोंसे आँधोंने राज सिंधु सौवीर सौराष्टं तथा प्रत्यंत वासिनः छीन लिया और सातकर्णि वा सातबाहन वा साल कलिङ्ग कौहणन्बङ्गान् गत्वा संस्कारमर्हति । बाहनके नामसे अनेक पीढ़ी तक राज करते रहे। -देवल स्मृति ये भाँध लोग द्राविड़ये जिनकी बाबत मनुस्मृतिने भावार्थ-सिन्धु-सौबीर, सोरठ और इनके उनके धर्म-भ्रष्ट और जाति-भ्रष्ट होनेकी आज्ञा दे आस-पासके देशोंमें जानेसे और उड़ीसा, रक्खी है। परन्तु अब राजा होने पर तो वे उच्चसे कोकन, बंगाल देशमें जानेसे संस्कार कराना सब धर्मात्मा और कुलीन हो गये हैं, इसही प्रकार मनुमहाराजने लिच्छिवियोंको भी उनके जैनी पातंजलि अष्टाध्यायीके अपने महाभाष्यमें होनेके कारण हीन और पतित जातिके बताया है लिखता है कि शक और यवन शूद्र हैं, तो भी परन्तु उसको क्या मालूम था कि इन्हीं लिच्छि- आर्य लोग उनको अपने वर्तनोंमें भोजन कराते वियोंके साथ सम्बन्ध होजानेके कारण ही गुप्त- है। (२, ४, ७) विष्णु-पुराण और ऐसा ही वायु पड़ेगा।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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