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वर्ष २, किरण ]
अपराजितसूरि और विजयोदया
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यंत्यपरे गमाविविचित्रमयानुसारेण, भन्ये सदाधनु- प्रत्यास्यानं संयत-संपतासंपतयोरपि अल्पकालिक योगोपन्यासेन । अपरे 'भदसपसत्याचं होई पबदरी' जीविवाधिकंपा।" इति पबन्ति ।'
अर्थात् यह प्रत्याख्यान दो प्रकारकाई-मूलगुण (गाया नं० २१७) "अन्येषां पाठा परिवदिावा- प्रत्याख्यान और उत्तरगुणप्रत्याख्यान । उनमेंसे पायो-परिवर्विवावधान परिषदिलदोवधाबो- संयमी मुनियोंके मूल-गुण प्रत्याख्यान जीवनपर्यंतके परिवर्षितामहः ।
लिये होता है । संयतासंयत पंचमगुणस्थानवर्ती इनके सिवाय और भी बहुत-सी गाथाओंमें दूसरे टीकाकारों द्वारा माने गये पाठभेदोंको दर्शाया गया है, भावकके अणुव्रतोंको मूलगुण कहते हैं । गृहस्थों के
मूलगुणका प्रत्याख्यान अल्पकालिक और सर्वकालिक जिनसे यह स्पष्ट पता चलता है कि अपराजितसूरिके सामने कितनी ही दूसरी टीकाएँ भ. पाराधनापर
ऐसे दोनों प्रकारसे होता है। पक्ष, महीना, छह महीने उपस्थित थीं और उन सबका अवलोकन करके ही
इत्यादि रूपसे भविष्यत्कालकी मर्यादा करके जो स्थल
हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रहरूप पंच 'विजयोदया'की सृष्टि की गई है।
पापोंको मैं नहीं करूँगा ऐसा संकल्प करना अल्पकालिक इस टीकामें कितना ही ऐसा महत्वका वर्णन भी है
प्रत्याख्यान कहलाता है । तथा मैं जीवनपर्यंत स्थल जो अन्यत्र नहीं पाया जाता और वह सब इस टीकाकी
हिंसादि पापोंको नहीं करूँगा ऐसा संकल्प कर उनका जो विशेषता है । उस विशेषताको समय समय पर स्वतंत्र
त्याग करता है वह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है। लेखों द्वारा प्रकट करनेका मेरा विचार है । यहाँ नमूनेके
उत्तरगुण-प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ दोनों ही तौरपर गाथा नं०११६ की व्याख्या में 'संयमहीन तप
जीवनपर्यंत तथा अल्पकाल के लिये कर सकते है। कार्यकारी नहीं इसकी पुष्टि करते हुए मुनि-भावकके
इस टीकामें, ५वीं गाथाकी व्याख्या करते हुए, मूलगुणों तथा उत्तरगुणों और आवश्यकादि कर्मो के
'सिद्धप्राभृत' नामक ग्रन्थका उल्लेख निम्न प्रकारसे अनुष्ठान-विधानादिका जो विस्तारके साथ विशेष वर्णन
किया हैदिया है उसका एक छोटासा अंश इस प्रकार है :
'सिरप्राभूतगदितस्वरूपसिबज्ञानमागमभावसिडः।' "तद्विविध मूबगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्या- और ७५३ नं. की गाथाकी व्याख्या करते हुए खानं । तत्र संबताना जीवितावधिकं मूबगुव-प्रत्या
'नमस्कारपाहुड' नामक ग्रन्थका उल्लेख भी किया है। ल्यानं । संवतासंपतानां अखातानि मूलगुण प्रत
यथा:भ्यपदेशावि भवंति ते विविध प्रत्याख्यानं अल्प
'नमस्कारप्राभवं नामास्ति ग्रन्थः पत्र गय प्रमाकाबिक, बीवितावधिकं चेति । पर-मास-परमासादि
खादिनिपादिमुखेन नमस्कारो निरूप्यते।' स्पेव भविष्यकाळ सावधिकं हवा तत्रस्थून हिंसा,
विद्वानोंको इन दोनों ग्रन्थोंका शास्त्रभंडारोंकी नृतस्तेवाममपरिग्रहानाचरिष्यामि इति प्रत्याल्पानमल्पकासकम् ।
कालकोठरियोंमेंसे खोजकर पता लगाना चाहिये । भामरबमसिया न करिष्यामि स्थहिंसा और इनके विषयका परिचय भी प्रकट करना चाहिये। दीनि इति प्रत्याल्यानं जीवितावधिक। उत्तरगुरु वीरसेवामंदिर, सरसावा, ता. १२-४-१९३९