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________________ वर्ष २, किरण १] गोत्रकाश्रित ऊँच-नीचता ३५ 'सब ही देव उच्चगात्री हैं। यह बात हृदयमं धारण देव उच्चगोत्री कहलाते हैं । सारांश यह कि धर्म-अधर्मकरके, जब हम उनके भेद-प्रभेदों तथा जातियों और रूप प्रवर्तने, पाप-पुण्यरूप क्रियाओं में रत रहने अथवा कृत्यों की तरफ ध्यान देते हैं तो यह बात और भी सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि होने पर उच्च और नीच गोत्रका ज्यादा स्पष्ट हो ज ती है कि गोत्रकर्म क्या है और उसने कोई भेद नहीं है.--- धर्म विशेषसे उसका कोई सम्बन्ध संसारभरके सारे प्राणियोंको ऊँच-नीच रूप दो भागों ही नहीं है। उसका सम्बन्ध है एकमात्र लोकव्यवहार में किस तरह बांट रक्खा है । मोटे रूपसे देव चार से। प्रकारके हैं-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्प कल्पवासी देव भी सब एक समान नहीं होतेवासी अथवा वैमानिक। इनमें से भवनवासी, व्यंतर उनमें भी राजा, प्रजा, सिपाही, प्यादे, नौकर, चाकर और ज्योतिषी देवों में सम्यग्दृष्टि जन्म ही नहीं लेता- और किल्विप आदि अनेक जातियां होती हैं। पाप कर्म इन कलों में पैदा ही नहीं होता है। इन सबक प्रायः के उदयम चांडालों के समान नीच काम करने वाले. कृष्ण, नील, कापोत ये तीन बोटी लेश्याएँ ही होती। नगरसे बाहर रहनेवाले और अछूत माने जानेवाले है, चौथी पीत लेश्या तो किंचितमात्र ही हो सकती है। नीच जाति के देव किल्विष' कहलाते हैं। अनेक देव यथा-- हाथी घोड़ा आदि बनकर इन्द्रादिक की सवारी का काम कृष्णा नीला च कापोता लेश्याश्च द्रव्यभावतः। देते हैं; परन्तु ये सब भी उच्च गोत्री ही हैं । तेजोलेश्या जघ या च ज्योतिपान्पु भापिताः ॥ भवनवासी भी अनेक प्रकार के हैं, जिनमें से -हरिवंशपुराण, ६.१०८ अम्बावरीष आदि असुरकुमार जातिके देव प्रथम नरक बाकी रहीं पद्म और शुक्ल दो उत्तम लेश्याएँ, ये के ऊपर के हिस्सेके दूसरे भाग रहते हैं। पूर्व भवमें उनके होती ही नहीं है । परिणाम उनके प्रायः अशुभ अति तीव्र संक्लेश भाषांसे जो पापकर्म उपार्जन किया ही रहते हैं और इसी से वे बहुधा पाप ही उपार्जन था, उसके उदयसे निरन्तर संक्लेश-युक्त परिणाम वाले किया करते हैं । परन्तु मंशी पंचन्द्रिय तियचोंके छहो होकर ये नारकियों को दुख पहुँचाने के वास्ते नरककी लेश्याएँ होती हैं अर्थात् पीत पद्म और शुक्ल ये तीनों तीसरी पृथिवी तक जाते हैx, जहां नारकियोंको पुण्य उपजानेवाली लेश्याएँ भी उनके हुआ करती हैं। पिघला हुआ गरम लोहा पिलाया जाता है, गरम लोहे इस प्रकार धर्माचरण बहुत कुछ उच्च हो जाने पर भी के खम्भों से उनके शरीर को बांधा जाता है, कुल्हाड़ासंज्ञी पंचेन्द्रिय तियच तो नीच गात्री ही बने रहते हैं वसूला आदि से उनका शरीर छीला जाता है, पकते हुए और पापाचारी होने पर भी भवन वासी व्यंतर-जैसे गरम तेल में पकाया जाता है, कोल्ह में पेला जाता है, * "गरतिरयाणं ओघो" (गो० जी० ५३०)। x पूर्वज मनि सम्भावितनातितीव्ररा संक्लेशटीका . 'नरतिरश्चां प्रत्येकं ओघः सामा योत्कृष्ट परिणामेन यदुपार्जितं पापकर्म तस्योदयात्सततं पट्लेश्याः स्युः'--केशववर्णी । पटनतिर्यक्ष० २६७ क्लिष्टाः संक्लिष्टा अमुराः संक्लिासुराः । इत्यादि -पंचसंग्रहे अमितगतिः । - सर्वार्थसिद्धि ३-५
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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