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________________ अनेकान्त [ कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ कि, नीच हो या उच्च, गोत्रकर्म अपने अस्तित्वमे यस्योदयात लोकपृजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चेर्गोत्रं । जीवोंके भावों पर कोई असर नहीं डालता है। यदुदयाद्गर्हितेषु कुलेषु जाम तन्नींचेोत्रम् ॥ गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में ऊँच और नीच गोत्रकी जो पहचान बतलाई है वह इस प्रकार है - अर्थात्--जिमके उदयमे लोकमान्य कुलोम जन्म हो वह उच्च गोत्र और निंद्य अर्थात् बदनाम कुलोम संताणकमेणागयजीवायरणम्स गोदमिदि सराण।। जन्म हो तो वह नीच गोत्र । ऐसा ही लक्षण ऊँचउच्च णीचं चरणं उच्चं चं हवे गोदं ॥१३॥ नीच गोत्रका श्रीअकलंकदेवने गजवानिकों और अर्थात् -- कुलकी परिपाटीके क्रमम चला आया विद्यानंदस्वामीन श्लोकवार्तिकम दिया है । इससे जो जीवका आचरण उसको गोत्र कहते हैं: वह इतनी बात तो बिलकुल स्पष्ट होजाती है कि सम्यक आचरण ऊँचा हो तो उसे ऊँचगोत्र' और नीचा चारित्र और मिथ्या चारित्र अर्थात् धर्माचरण अधर्माहो तो नोचगांत्र समझना चाहिये। चरणमे यहाँ कोई मतलब नहीं है...एकमात्र लौकिक व्यवहार में ही मतलब है । और यह बात इस कथनस इस गाथाम कल परम्परा चले आये ऊंच-नीच और भी ज्यादा पष्ट हो जाती है कि सबही देव और आचरणसे ही ऊँच-नीच गोत्रका भेद किया गया है. भांगमिया जीव... चाह व सम्यग्दृष्टि हो वा मिथ्याअर्थात् ऊँच-नीच गोत्रके पहचाननेम कुलका आचरण दृष्टि—जो अणुमात्र भी चारित्र नहीं ग्रहण कर सकते ही एकमात्र कारण बतलाया है । इससे अब केवल यह है वे तो उच्चगोत्री हैं: परन्तु संजी पंचन्द्रिय तिर्यच बात जाननेको रह गई कि इस आचरणसे सम्यक २. अर्थात हाथी, घोड़ा, बैल, बकरी आदि देशचारित्र चारित्र और मिथ्या चारित्रसे.-.खरे खोटे धर्माचरणमे धारण कर सकने वाले-पंचमगुणस्थान तक पहुँच -मतलब है या लौकिक आचरणसे---- अथात् लोक कर श्रावक के व्रत तक ग्रहण करनेवाले-जीव नीच व्यवहारमं एक तो व्यवहार योग्य कुल वाला होता है, गोत्री ही हैं । दूसरे शब्दोंम यो कहिये कि जो व्रतीजिसको आजकलकी भाषामें नागरिक कहते हैं और श्रावकके योग्य धर्माचरण धारण नहीं कर सकते वे तो दूसरा ठग-डकैत आदि कुल वाला होता है. जो लोक उच्चगोत्री और जो धारण कर सकते हैं व नीचगोत्री। व्यवहारम व्यवहारयोग्य नहीं माना जाता--निय गिना इससे ज्यादा और क्या सबत इस बातका हो सकता है जाता है, अथवा यो कहिये कि एक तो मभ्य कह जाने कि गोत्रकर्मकी ऊँच-नीचताका धर्म विशेषसे कोई वालोंका कुल होता है और दूसरा उन लोगोंका जो मम्बन्ध नहीं है । उसका आधार एकमात्र लोकम किसी असभ्य कहे जाते हैं । इनमें से कौनसे कुलका आचरण कुलकी ऊँच-नीच-मान्यता है, जो प्रायः लोक व्यवहार यहाँ अभिप्रेत है? पर अवलम्बित होती है । लोकमें देव शक्तिशाली मर्वार्थसिद्धिर्म, श्रीपूज्यपाद स्वामीने, तन्वार्थमृत्र, होने के कारण ऊँच माने जाते हैं, इस कारण वे तो अध्याय ८ सूत्र ५२ की टीका लिग्बत हुए, ऊँच-नीच उच्चगोत्री हुए; और पशु जो अपने पशुपनेके कारण गोत्र की निम्न पहचान बतलाई है। हीन माने जाते हैं वे नीचगोत्री ठहरे ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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